वहीं से आऊँगा

wahin se aunga

अशोक वाजपेयी

अशोक वाजपेयी

वहीं से आऊँगा

अशोक वाजपेयी

मैं वहीं से आऊँगा

जहाँ से वे आए थे :

जहाँ पानी और नमक का उद्गम है,

नदी को छूती छूती वृक्षों की शाखाएँ हैं,

बूढ़ों के चेहरों पर तकलीफ़ और सपने दोनों चमकते हैं,

जहाँ बच्चों को प्रतीक्षा रहती है ताज़े फलों और गर्म रोटियों की सुगंध की।

सपनों पर नाम या पता नहीं लिखा होता,

फिर भी मुझे पता है कि उन पुरखों के हैं,

जिन्होंने किसी झील के किनारे सुस्ताते हुए सोचा था

कि राहत, हिम्मत और आकांक्षा पर सबका हक़ है

और सच में, जैसे जल में, सबका हिस्सा है।

मैं वहीं से आऊँगा :

जहाँ से वे आए थे—

मैं याद करूँगा वे बहसें जो चौक-चौबारों में हुई थीं

जीवन, आचरण और मर्यादा के बारे में

और उस अंत:करण को, जो सच बोलने की ज़िद पर अड़ा रहा

अकेले पड़ते और घोड़े की पूँछ से बाँधकर घिसटे जाने के बावजूद।

मैं वहीं जाऊँगा

जहाँ माना जाता है कि सच अकेले का भी होता है और सबका भी

और उसे जितना पाया जाता है उतना ही रचा।

मैं वहीं जाऊँगा जहाँ एक समय गढ़े गए देवता,

स्वर्ग और नरक,

अंतरिक्ष में गूँजते अहरह गान।

वहीं सहायता और करुणा के गलियारे और उम्मीद के कंगूरे।

मैं जाऊँगा वहाँ जहाँ

लोग दूसरों को अँधेरी सरहदों के पार उजालों में छोड़कर

अपनी घुप्प रात में गुम हो जाते हैं।

मैं वहीं से आऊँगा

जहाँ से वे आए थे :

खुदे जाने के लिए पत्थर की तरह,

सुलगने के लिए कोयले की तरह,

राख हो जाने के लिए आग की तरह।

मैं वहीं से आऊँगा

जहाँ प्रार्थना में डूबे लोग

अत्याचार के विरुद्ध उठी चीख़ को अनसुना नहीं करते,

जहाँ कोई भी पुकारे दु:खी या कोयल या राह भूल गई बुढ़िया

उसे उत्तर मिलता है

मैं वहीं से...

स्रोत :
  • रचनाकार : अशोक वाजपेयी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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