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विपरीत के उद्भव पर

viprit ke udbhav par

मिरोस्लाव होलुब

अन्य

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मिरोस्लाव होलुब

विपरीत के उद्भव पर

मिरोस्लाव होलुब

और अधिकमिरोस्लाव होलुब

     

    जैसे कि विभाजित हो जाए आकाश—
    लेकिन यह तो था एक जोड़ा हाथ।

    थोड़ी देर के लिए इसने फड़फड़ाए पंख,
    लेकिन जुड़ गए हाथ
    और ज़्यादा। पंखों ने किया प्रतिरोध
    इसने पटके पैर लेकिन जुड़ गए हाथ
    और टूट गया एक पैर।

    हर बार जब इसने हिलाई-डुलाई कोई चीज़
    जुड़ गए हाथ और कुछ टूट गया।
    इसलिए यह रहा अकड़ा। यह हो
    सकती थी स्तब्धि भी।

    लेकिन यह एक रेंगता हुआ बोध भी हो
    सकता था कि अब बचा नहीं कोई नीला रंग।
    विपरीत इसके।
    कि अब नहीं है कोई मैदान जिसमें फूल हों
    यहाँ और वहाँ
    विपरीत इसके।
    कि न तो ग्लूकोज़ है
    न सरसराहट
    न समय
    लेकिन विपरीत इसके।
    और चीज़ें अब इसी तरह हैं। जब तक कि
    ऊब नहीं जाता कोई इससे। इस जीवन,
    इस मृत्यु या हथेली पर उस खुजलाहट से।

           
    स्रोत :
    • पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 123)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : मिरोस्लाव होलुब
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1989

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