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उनका बचपन

unka bachpan

दीप्ति कुशवाह

दीप्ति कुशवाह

उनका बचपन

दीप्ति कुशवाह

और अधिकदीप्ति कुशवाह

    उनसे कोई नहीं पूछता 

    कहाँ रहते हो 

    नाम भी नहीं पूछा जाता 

    उनका 

    बदहाली के पन्ने फड़फड़ाते रहते हैं 

    क़द से बड़ी उनकी क़मीज़ों में

    डोरी से कमर पर टिकाई 

    खुले मुँह वाली निक्करों से 

    धड़धड़ाती रेलगाड़ियाँ दहला नहीं पातीं 

    भले छौने से हैं कलेजे उनके 

    रेंगते डब्बों के नीचे से 

    निकाल लाते हैं 

    बची-खुची जूठन 

    जो फेंकी होती है किसी ने 

    अघा चुकने के बाद 

    जीवन का महत्व 

    मालूम नहीं जिनको 

    वही होते हैं 

    मृत्यु के भय से परे 

    उनका कोई पता होता है 

    आती है कभी चिट्ठी उनके नाम 

    बजबजाते फुटपाथ 

    गंधाते प्लेटफ़ार्म पढ़ते हैं 

    दैनंदिनी उनकी 

    सच तो यह है 

    वे किसी भी जगह के अनुकूल 

    ढाल लेते हैं ज़िंदगी को 

    और प्राप्त के अनुसार बना लेते हैं 

    आवश्यकताएँ अपनी 

    शोरगुल से भरी 

    भागती सड़क के कोनों में 

    भूख से भरे पेट से 

    घुटने सटाकर 

    ले लेते हैं अस्तव्यस्त नींद 

    और नींद में भी पहचान लेते हैं 

    खाली बोतल फेंके जाने की आवाज़ 

    कच्ची कैरी सी एक भी याद 

    शामिल नहीं अनुभव की दराज़ में

    रंगबिरंगी पन्नियों के हवाले है 

    उनका बदरंग बचपन 

    आकांक्षाएँ बिना उन्हें छुए 

    बढ़ जाती हैं आगे 

    उनके लिए त्यौहारों के पास 

    नहीं होता कुछ भी 

    छोटी हथेलियों पर 

    प्रश्न बड़े रखकर 

    गुज़र जाता है समय चुपचाप 

    स्कूल जाते बच्चों के अंदर 

    ख़ुद को उतारकर 

    ढूँढ़ते हैं ज़रा-सी ख़ुशी 

    वे अपने हैं पिता 

    और माँ हैं ख़ुद ही

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीप्ति कुशवाह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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