Font by Mehr Nastaliq Web

कि

ki

कुमार अम्बुज

अन्य

अन्य

और अधिककुमार अम्बुज

    कि मैं प्राय: अकेला और हास्यास्पद हुआ

    लेकिन तब तक मेरे पास

    बहुत विकल्प बचे थे

    कि घनी आबादी के इस अविकसित देश में

    विकसित हो चुके लोगों का साम्राज्य था

    उधर होनी ही थी ग़रीबी सनातन

    कि धर्म हो चुका था सनातन

    कि मछुआरा अपने बेटे को पढ़ाना तो चाहता था

    मगर मछली मारने की क़ीमत पर नहीं

    कि साक्षरता और खाद्य दो अलग विभाग थे

    और इसमें सरकार बेचारी क्या कर सकती थी

    अस्पताल से या दुकान से

    लौटते हुए से आदमी को लगता था

    कि उसे लूट लिया गया है सरेबाज़ार

    कि अब वह क्या कर सकता है

    जबकि लुटने वाले अनेक हैं एकदम चुप

    कि आख़िर स्त्रियाँ और बच्चे

    सबसे आज्ञाकारी मज़दूर साबित हुए

    तो इसमें मालिकों का क्या अपराध?

    और अंत में यह

    कि दुनिया को बदलने वाले लोगों का एक दल

    हर काल में होता आया है

    कि आज की यह तस्वीर ही

    संसार की आख़िरी तस्वीर नहीं है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 99)
    • रचनाकार : राजकमल प्रकाशन
    • प्रकाशन : कुमार अम्बुज
    • संस्करण : 2014

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए