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तुम्हें जेठ-वैशाख की तपती

tumhein jeth vaishakh ki tapti

चंचला पाठक

चंचला पाठक

तुम्हें जेठ-वैशाख की तपती

चंचला पाठक

तुम्हें जेठ-वैशाख की तपती

दुपहरी में आना था प्रियंक!

लय हो जाता विरह का उत्ताप

तपते निदाघ के आलाप में

मिलन की सघन भैरवी

काल की प्रतिबद्धता तज

दीर्घ आलाप में विराजती हमारे मध्य

कोमलतम उतरता गँधार अपनी पूरी धज में

धैवत की गंभीरता

कितनी चपलता से उतरती विरह-वीणा पर!

तुम जेठ वैशाख की तपती दुपहरी में आते प्रियंक!

जब आकुल-व्याकुल मैं

लोटती थी तपती रेत पर

कि कुछ तो सवाई हो इस विरह के उत्ताप से!

राग दीपक ऐसे ही किसी विरही-कंठ का

उच्चारण रहा होगा

तरल अग्नि बन बहा होगा किसी हृदयनद से

रोमकूपों से प्राणपर्यंत जलते रहे

सहस्रों दीप मुझमें

आँखों ने टाँक दिए वे सहस्रों दीप

क्षितिज के ओर से छोर तक

तुम भाद्रपद के मध्याह्न में जब

लाँघ रहे थे मेरे घर की ड्योढी—

टूट रही थी जैसे द्वार की योगसमाधि

दमक रही थी विरह की आभा पूरे परिसर में

इसकी उज्ज्वलता में

समिधा बन झर रहा था 'चौरासी'

इसके परिपाक की महक को

लोढ़ रही थी मातृकाएँ

उठ रही थी भाप

बन रहे थे बादल

बदल रहे थे नक्षत्र अपना मार्ग

मरुभूमि की तपश्चर्या से ज्यूँ

सरस है पूर्वांचली

तरल हैं नदी-नद

गाभों में ठहर रहा अन्नाद

अग्नि के शैत्य से ही

बरसता है धारासार यह मेघ

सहस्रजिह्व इस अग्नि के आलोक से

सु-ऊष्म है यह सृष्टि

परंतु

अग्नि का स्पर्श प्रतिबंधित है प्रियंक!

स्रोत :
  • रचनाकार : चंचला पाठक
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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