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आत्मकथ्य

atmakathy

जयशंकर प्रसाद

अन्य

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जयशंकर प्रसाद

आत्मकथ्य

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा दसवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

    मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

    इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास

    यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग-मलिन उपहास

    तब भी कहते हो—कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

    तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे—यह गागर रीति।

    किंतु कहीं ऐसा हो कि तुम ही ख़ाली करने वाले—

    अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

    यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।

    भूलें अपनी या प्रवचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

    उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

    अरे खिल-खिलाकर हँसते होने वाली उन बातों की।

    मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।

    आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

    जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।

    अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

    उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

    सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?

    छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?

    क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

    सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा?

    अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

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    जयशंकर प्रसाद

    जयशंकर प्रसाद

    स्रोत :
    • पुस्तक : क्षितिज (भाग-2) (पृष्ठ 19)
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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