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दयावती का कुनबा

dayawati ka kunba

रघुवीर सहाय

अन्य

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रघुवीर सहाय

दयावती का कुनबा

रघुवीर सहाय

और अधिकरघुवीर सहाय

    अब इस घर में पुरुष कोई नहीं रह गया।

    यह एक लंबी कहानी है

    वहाँ से शुरू करें?

    जब इस सदी के आरंभ में

    दयावती घर से विदा हुई,

    हर पुत्री का अपना भाग्य है

    मानकर पिता ने वर ले दिया;

    बोझ मिटा बाप का

    जिसको संसार में कितने ही मोर्चे लड़ने थे—

    दयावती को उससे ज्यादा लड़ने पड़े।

    तब से शुरू हुई दयावती की कथा

    इच्छाएँ दाबकर बदलकर स्वभाव को

    जैसे ससुराल में पसंद था

    रोगों को झेलकर, दिखलाकर सगुन

    चार बच्चे पैदा किए।

    कहा नहीं जा सकता क्यों पहले बेटे की

    बीवी ने तीन लड़कियाँ जनीं

    पर उसका आदमी पेट का मरीज़ था

    और बहुत चाय और सिगरेट पीते हुए

    अपनी मामूली तनख़्वाह की शर्म से

    मुक्त रहा करता था।

    प्राकृतिक इलाज इस ग़रीबी में असंभव था

    महँगी दवाओं के विष से वह मर गया;

    विधवा कई बरस घुटकर धुएँ में रसोई के चल बसी।

    दयावती को लगा कि घटनाएँ तेज़ी से घटती हैं

    जैसे कि पोतियाँ हो रही हैं बड़ी।

    दूसरे बेटे ने धौंस बड़े बाबू की सही,

    कामचोरों की एवज़ी करता

    सिर झुका इलाज के बग़ैर ही गुज़र गया।

    तीसरा शादी के पहले ही

    घर से असंतुष्ट था—

    बीवी से बहस की और ज़हर खा लिया।

    यह सब संक्षेप में मैंने बताया है

    क्योंकि दयावती की कहानी बहुत लंबी है—

    एक साल पति की शुश्रूषा करते हुए

    कई बरस कम पढ़ी औरत के

    सीने पिरोने की मेहनत मजूरी के—

    लड़की को रोज़ी कमाने के लायक़ बनाने के

    इसमें दामाद खोजने को भी जोड़ लें

    तो अंतिम साँस तक घिसटती दयावती

    दोनों विधवाओं को छोड़ गुज़र जाती है

    पोतियों की ख़बर हमको पता नहीं

    वे अपनी दादी की तरह कहाँ

    बोझ कम करने के लिए विदा होती हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रघुवीर सहाय संचयिता (पृष्ठ 66)
    • संपादक : कृष्ण कुमार
    • रचनाकार : रघुवीर सहाय
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2003

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