दुश्मन

dushman

केदारनाथ सिंह

इक्कीसवें दिन

जबकि मौसम साफ़ था

और मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई

मैंने सूरज की ओर देखा

और सिर हिलाया

क्योंकि यही एक काम था

जो उस समय किया जा सकता था

एक आदमी शहर के दूसरे छोर पर

मेरा इंतज़ार कर रहा था

एक साइकिल धूप में खड़ी थी

जो साइकिल से ज़्यादा एक चुनौती थी

मेरे फेफड़ों के लिए

और मेरी भाषा के पूरे वाक्य-विन्यास के लिए

मुझे आदमी का चीख़ना

चमत्कार की तरह लगता है

मैंने अपने समय के सबसे मजबूत आदमी को

अँधेरे से कूदकर

एक माचिस के अंदर जाते हुए देखा है

मेरी मुश्किल यह है

मैं चीज़ों को जानता हूँ

जानना

चीज़ों के ख़िलाफ़

आदमी की मांसपेशियों का लगातार हमला है

जिसके लिए हर बार

एक नए मोर्चे की तलाश करनी पड़ती है

दुश्मन कहीं दिखाई नहीं पड़ता

रेडियो उसके नाम का ज़िक्र कभी नहीं करता

नमक और पानी

सिर्फ़ दो शब्द मेरे पास है

तीसरा हमेशा उसके पास रहता है

पर कितना अजीब है

कि सारी सुविधाओं के बावजूद

इस समय

टेलीफ़ोन के किसी भी नंबर पर

उससे संपर्क नहीं किया जा सकता!

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 89)
  • संपादक : परमानंद श्रीवास्तव
  • रचनाकार : केदारनाथ सिंह
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 1985

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