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फैक्टरी

phaiktri

अनुवाद : वै. वेंकटरमण राव

सोमसुंदर

अन्य

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सोमसुंदर

फैक्टरी

सोमसुंदर

और अधिकसोमसुंदर

    वही है वही है फैक्टरी!

    धन मदांध अधिकारियों के

    करुणा-रहित गर्व का

    साकार रूप बन

    विराजित फैक्टरी!

    देख! वही चिमनी

    धनस्वामी की निर्दयता के समान खड़ी

    गुफ गुफ गुफ गुफ

    धुआँ उड़ाती चिमनी!

    लोक के सारे अवसरों पर

    काला रंग पोतने वाली चिमनी!

    देख वही है फैक्टरी

    अहंकार की आकृति

    भू माँ की अँतड़ियों में प्रकंपन पैदा करती

    देख! नीति छोड़ खड़ी है गर्जन भरती!

    अतीत में

    फटी चारपाई पर कमर डाले सुस्ताए

    कलेवरों को चलाते

    विचारने की शक्ति से दूर

    आदतों के बंदी बन

    धक्के दे-दे कर एक निमेष में ही

    रहें हैं देख!

    देख रहा है न?

    इनको मानव समझने की कर रहा है ग़लती तू क्या?

    नहीं दोस्त!

    मानव हैं नहीं ये

    दो पैरों पर हिलने वाले

    यंत्रांतर्भागों के हैं शरीर,

    हर स्वेद बिंदु में

    रक्त की धारा बहा कर

    मधु को संचित करने मात्र के लिए

    जन्मे मज़दूर ये

    देख रहा है न?

    बाधार्णव अथाह गर्भ में गिर

    पा थाह राह

    घूर्णित अभागे!

    कहे जाते हैं ये मज़दूर!!!

    मालिकों के लौह-हृदयों की

    पाशविकता देख काँपने वाले

    मज़दूर हैं ये! देख लो!

    दीनता निस्तब्धता

    भय भ्रांत भाव के

    मूर्त रूप मुख समूह

    जीव चेतना-रहित देह

    ये हैं कौन? मानव?

    सत्स्वरूप के वारिस?

    रक्त-माँस संयुक्त

    यंत्रांतर्भाग!

    भाग्यवानों को सुकुमारों को

    जन्म देने वाला वही क्या?

    वही है क्या परमेश्वर

    इन जीवच्चवों का सरजनहार!

    इन सबको बना मज़दूर

    आलसियों के लिए

    अपार सौभाग्य

    समीकृत करने मात्र के लिए ही

    सृजित किया है क्या वह विश्व करतार!

    बिन कानों का काला पत्थर भगवान्

    बिन हृदय का है वह चट्टान! कम्बख़्त!

    इन फैक्टरियों की

    मचाई खलबली में

    अगणित श्रमिकों के

    हृदयों की धड़कनें

    नहीं सुनाई दे रही हैं क्या उसको?

    लो......देखो उधर!

    हर दिन फैक्टरी

    मज़दूरों की अगणित हड्डियों को

    चूर-चूर कर

    रक्त से लेप बना

    धनपतियों के पैरों की

    मेहंदी बना रही है!

    देख रहा है दोस्त?

    दीनों के रक्त से भींगी मिट्टी

    सूख लाल राख बन

    सड़क पर उड़ रही है!

    देख रहा है दोस्त!

    शताधिक अभागों के

    रुधिर स्वेद से सनी

    मिट्टी से निर्मित

    मंदिरों और मसज़िदों में

    इठलाने वाला है भगवान्!

    बिन कानों का काला पत्थर भगवान्,

    बिन हृदय का है वह चट्टान!! कम्बख़्त!

    धनस्वामी का अधिकार

    दीनों की मेहनत का फल लूटता है

    तो देख रह जाने वाला

    होंठ भी हिलाने वाला वह भगवान्

    न्याय करेगा क्या! हे दोस्त!

    फैक्टरियों के मालिकों के

    चंदों से ही

    बिक गया है भगवान्, हे दोस्त!

    चंद्रकांत शिला निर्मित

    भवन में बंदी हो गया है!

    बहुत दिन बीत गए हैं अब!!

    इसीलिए भगवान्

    धनस्वामियों का बन विश्वस्त नौकर

    गरीबों की अन्नार्तियों की पुकारों को

    सुन नहीं पा रहा है

    (भगवान के कर्ण पुटों में

    पिघलाया इस्पात

    डाल रखा है धनपति ने)

    शंका क्यों?

    दोस्त! यह है सत्य।

    देख, वह फैक्टरी

    शक्ति-रहित हीन स्वर में

    थके भूरि भूत-सा

    शेर-सा

    गर्जन कर रही है फैक्टरी!

    मूर्च्छित सर्प-सा

    बुस बुस बुस बुस

    धुआँ उड़ा रही है चिमनी

    ख़ून उगलते छेद पड़े

    फेफड़ों-सा

    काला धुआँ उँड़ेलती चिमनी!

    वही धुआँ उँड़ेलती चिमनी!

    निकला धुआँ, अंधकार-सा

    आसमान के पेट में

    बिखर रहा है

    अतीत के इतिहास-सा

    स्वार्थियों की गाथाओं-सा

    खुलता जा रहा है उसका भी राज

    अगणित असंख्य

    शतसहस्त्र अभागों को देख!

    नव-चेतना-वाहिनी बन

    रहे हैं!

    सारे संसार को

    आक्रमित कर रहे हैं वे

    देख रहा है न? दोस्त

    औरों के लिए असाध्य

    प्रजाशक्ति सेनाएँ बन

    प्रलयकाल रौद्र रूप कर धारण

    विप्लव चेतना ले

    पुरोगमन कर रही हैं, देख!

    देख रहा है न? दोस्त!

    धनपति ने लूट से

    जिस बलवान दुर्ग को बनाया

    आज उसी की नींव हिल गई है!

    फट् फट् फट्... टूट रही है

    शंका क्यों?

    हे दोस्त!

    धराशायी होगा ही

    लूटखोरों की कालरात्रि

    समीप गई।

    लक्ष-लक्ष पीड़ित जन

    समूह देख! देख!

    हिल रहा है क़तारों में!

    श्रमिक जन कोपाग्निज्वालाओं से

    तिलमिलाते शलभों-सा

    धनपति थर-थर-थर

    प्रजाशक्ति के सामने

    आषादान्त काँप

    पदाक्रांत होने का

    शुभ समय आसन्न हो गया है

    शुभारंभ हो ही गया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 86)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : सोमसुंदर
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985

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