स्वप्नोत्त्थित

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मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

स्वप्नोत्त्थित

मैथिलीशरण गुप्त

सोया मैं, सदियों तक सोया!

ऐसा सोया हूँ कि आप ही मैं अपने में खोया।

किंतु नींद जो मुझको आई,

वह कुछ भी विश्रांति लायी।

सौ स्वप्नों ने धूम मचाई,

अपनी-अपनी छटा दिखाई।

चिंता, शोक, विषाद और भय सबने घोर घटा छाई।

और रुधिर-धारा बरसाई॥

बह कर उसने मुझे बहाया और दबोच डुबोया।

सोया मैं, सदियों तक सोया!

उन स्वप्नों का ऐसा क्रम था—

बस, प्रत्यक्ष भाव का भ्रम था!

लूट-मार से नाकों दम था,

मैं था मेरा आश्रम था।

धरा धसकती, नभ फटता था, धुआँधार दुस्तर तम था,

और दस्यु दल अति दुर्दम था॥

अब भी प्रहार निरंतर सहता हूँ मैं गोया।

सोया मैं, सदियों तक सोया!

पर अब आँख खुली है मेरी,

और दृष्टि भी मैंने फेरी।

फिर भी है सब ओर अँधेरी,

प्रभा प्रकाशित हो अब तेरी।

देखूँ मैं क्या गया, रहा क्या, कर दया-मय देरी।

बजने दे फिर जीवन-भेरी॥

किसी प्रकार भार यह मैंने जीवित रह कर ढोया।

सोया मैं, सदियों तक सोया!

तेरी पुण्य पताका फहरे,

मुक्त मुक्ति-पट उसका लहरे।

आँधी उठे, घटा भी घहरे,

मेरी दृष्टि उसी पर ठहरे।

लाख-लाख कंटक हों पथ में, चलूँ जिधर वह छहरे।

भय-विघ्नों से हृदय हहरे॥

पद-पद पर उसका फल भोगे, जो जिसने हो बोया।

सोया मैं, सदियों तक सोया!

स्रोत :
  • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 30)
  • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
  • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
  • संस्करण : 1994

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