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त्रिशंकु का विजय-गीत

trishanku ka vijay geet

श्री अरविंद

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श्री अरविंद

त्रिशंकु का विजय-गीत

श्री अरविंद

और अधिकश्री अरविंद

     

    मैं नहीं होऊँगा विनष्ट। 
    यद्यपि यह शरीर, जब इसके संकरे आवास 
    से थक जाएगा प्राण, बनेगा अग्नि का ग्रास, 
    मैं नहीं, मेरा गृह होगा भस्मीभूत।

    यह मंजूषा त्याग कर 
    मैं पाऊँगा स्वर्गिक सुविशाल आकाश-घर। 
    मेरी आत्मा मृत्यु-आलिंगन को प्रतारित कर, 
    बुभुक्षित श्मशान का करेगी परिहार।

    रात्रि सूर्य को कर लेगी अंतर्विष्ट 
    अपनी ठंडी गहनताओं में; 'समय' का भी हो जाएगा अंत; 
    श्रमनिरत नक्षत्र भी हो जाएँगे अपने कार्य से मुक्त। 
    मैं नहीं होऊँगा निरस्त, रहूँगा अवस्थित।

    पहले जब धरा पर 
    रोपे गए ये प्रथम बीज, मैं तब तक हो चुका था वयप्राप्त,
    और अभी अजन्मे गृह-तारक जब हो जाएँगे सुन्न शीत 
    मेरी कथा होगी अग्रसर।

    मैं ज्योति हूँ नक्षत्र-मंडल 
    मैं, सिंहों का बल हूँ और हूँ सुबहों का हर्ष; 
    मैं एक कुमारिका हूँ, एक किशोर और हूँ एक पुरुष, 
    अनंत हूँ, और हूँ परिवर्तनशील।

    मैं हूँ एक तरुवर, 
    अनंत आकाश से बाहर एकाकी दृष्टिगोचर;
    मैं हूँ चुपचाप गिरता हुआ तुषार 
    और हूँ अपरिमेय सागर। 
    मैं उठाए हूँ गगन 
    साथ ही इस बहुप्रसवा पृथ्वी को ऊपर करता वहन। 
    अपने जन्म में मैं था अमर चिंतक शाश्वत 
    मर कर भी, रहूँगा वही सतत।




    स्रोत :
    • पुस्तक : श्री अरविंद | चुनिंदा कविताएँ (पृष्ठ 98)
    • रचनाकार : श्री अरविंद
    • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
    • संस्करण : 2020

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