पेड़ों पर बिल्लियों के उगने के बारे में संक्षिप्त चिंतन
peDon par billiyon ke ugne ke bare mein sankshipt chintan
मिरोस्लाव होलुब
Miroslav Holub

पेड़ों पर बिल्लियों के उगने के बारे में संक्षिप्त चिंतन
peDon par billiyon ke ugne ke bare mein sankshipt chintan
Miroslav Holub
मिरोस्लाव होलुब
और अधिकमिरोस्लाव होलुब
जब हुआ करती थीं छछूँदरों की वार्षिक बैठकें
और जब बेहतर थी उनकी नेत्र-ज्योति
जागी उनमें इच्छा यह कि किया जाए पता आख़िर
ऊपर है क्या
सो उन्होंने बिठाया एक आयोग जाँचने को कि
ऊपर क्या है
आयोग ने भेजा एक तेज़ आँखों वाला फुरतीला छछूँदर
दिखा उसे, बिछुड़ने के बाद अपनी परिचित धरती माँ से,
एक पेड़ जिस पर बैठी थी एक चिड़िया।
इस तरह सिद्धांत यह प्रतिपादित किया गया कि
ऊपर वहाँ पेड़ों पर उगती हैं चिड़ियाँ। बहरहाल,
कुछ छछूँदरों को लगा कि हो नहीं सकती बात
इतनी सहज। इसलिए भेजा उन्होंने एक और
छछूँदर, पता यह करने को कि क्या उगती हैं
चिड़ियाँ पेड़ों पर।
उस समय हो चुकी थी शाम, पेड़ पर कर
रही थीं कुछ बिल्लियाँ म्याऊँ। म्याऊँ
करने वाली बिल्लियाँ उगती हैं पेड़ पर, घोषित
यह किया दूसरे छछूँदर ने।
इस तरह विकसित हुआ एक वैकल्पिक सिद्धांत
बिल्लियों के बारे में।
परस्पर विरोधी इन दो सिद्धांतों से परेशान
हुआ आयोग का एक सनकी सदस्य। और
वह चढ़ गया ऊपर स्वयं पता करने को।
हो चुकी थी उस समय रात और अँधियारा छाया था।
ग़लत हैं दोनों ही सिद्धांत, किया घोषित
उस माननीय छछूँदर ने।
चिड़ियाँ और बिल्लियाँ हैं केवल
भम्र आँखों का, छवि उनकी बनती है
विखंडित रोशनी से। दरअसल, चीज़ें ऊपर
वैसी ही हैं जैसी कि नीचे, फ़र्क़ मात्र इतना
है कि ऊपर मिट्टी कम सघन है और पेड़ों
की ऊपरी जड़ें कुछ फुसफुसाती हैं,
लेकिन बस थोड़ा-सा।
बस इतनी बात है।
तब से रहते आए हैं छछूँदर नीचे ज़मीन के :
वे बिठाते नहीं हैं आयोग अब
या सोचते नहीं हैं बिल्लियों के अस्तित्व की
संभावना के बारे में।
सोचते भी हैं तो बहुत थोड़ा-सा।
- पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 119)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : मिरोस्लाव होलुब
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्करण : 1989
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.