यह सब-कुछ सच होगा
अथवा है भी
लेकिन फिर भी
मेरे गीतों की
एक ही है स्थायी टेक
कि आदमी के माथे पर
ग़रीबी से बढ़कर कोई अभिशाप नहीं
धरती की पीठ पर
इतना अमंगल, इतना दुःखदायक
इतना भयानक दूसरा कोई पाप नहीं।
जब तक मेरे पास गाने के लिए शब्द हैं
शब्दों के लिए साँसें हैं
तब तक
इसी ध्रुपद की, इसी टेक की
चाह हे मेरे गीतों को।
यह सब-कुछ सच होगा
अथवा है भी
लेकिन फिर भी
बरौनियों में उलझे हुए आँसू को
मत देखो परायों की तरह
यह मत कहो
कि मिट्टी के आँसू
मिलेंगे मिट्टी में ही
पत्थर की आँख का यह ओस-बिंदु
पार कर मत चल दो आगे
क्योंकि
इस रोती हुई माटी के गर्भ में
सरसराते हैं
धरती के पाँचों खंड हिला देने वाले
शेष और कालिया सरीखे हज़ारों सर्प
इन पत्थरों पर माथा धरकर सोई हैं
लाख-लाख दावानलों की लपटें
और इस आग की नहीं है कोई संस्कृति
इन सर्पों का नहीं है कोई एक देश
देव नहीं, धर्म नहीं, नीति नहीं
इनके पास है केवल गति
अँधी गति
अपनी ज़हरीली जिह्वाओं से
काले होंठों से
जीवन के समस्त सौंदर्य को पीने वाली
राक्षसी गति।
धरती पर फैले मंदिरों के अवशेषों पर से
शैया पर सोई स्त्रियों के स्तनों पर से
पागलों की तरह दौड़ने वाली
बेहोश गति।
गटापारचे की गुड़ियाएँ
प्लास्टिक के रंगीन खिलौनों
के भरे-पूरे संसार को
पैरों तले रौंदने वाली
निर्दय गति।
वह रुकती नहीं
न्याय-मंदिरों के सामने
शांति-स्तूपों के सम्मुख
या आकाश-रस से भरे
साहित्य-घट के सामने
रुकती नहीं
इसीलिए कहता हूँ फिर से
कि यह सब-कुछ सच होगा
लेकिन फिर भी...।
- पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 39)
- रचनाकार : कुसुमाग्रज
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1965
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