Font by Mehr Nastaliq Web

भटका हुआ अकेलापन

bhatka hua akelapan

कैलाश वाजपेयी

अन्य

अन्य

कैलाश वाजपेयी

भटका हुआ अकेलापन

कैलाश वाजपेयी

और अधिककैलाश वाजपेयी

    यह अधनंगी शाम और

    यह भटका हुआ

    अकेलापन

    मैंने फिर घबराकर अपना शीशा तोड़ दिया।

    राजमार्ग—कोलाहल—पहिए

    काँटेदार रंग गहरे

    यंत्र-सभ्यता चूस-चूसकर

    फेंके गए अस्त चेहरे

    झाग उगलती खुली खिड़कियाँ

    सड़े गीत सँकरे ज़ीने

    किसी एक कमरे में मुझको

    बंद कर लिया फिर मैंने

    यह अधनंगी शाम और

    यह चुभता हुआ

    अकेलापन

    मैंने फिर घबराकर अपना शीशा तोड़ दिया।

    झरती भाँप, खाँसता बिस्तर, चिथड़ा साँसें

    उबकाई

    धक्के देकर मुझे ज़िंदगी आख़िर कहाँ

    गिरा आई

    टेढ़ी दीवारों पर चलते

    मुरदा सपनों के साए

    जैसे कोई हत्यागृह में

    रह-रहकर लोरी गाए

    यह अधनंगी शाम और

    यह टूटा हुआ

    अकेलापन

    मैंने फिर उकताकर कोई पन्ना मोड़ दिया।

    आई याद—खौलते जल में

    जैसे बच्चा छूट गिरे।

    जैसे जलते हुए मरुस्थल में तितली का पंख झरे।

    चिटख़ गया आकाश

    देह टुकड़े-टुकड़े हो बिखर गई

    क्षण-भर में सौ बार घूमकर धरती जैसे

    ठहर गई

    यह अधनंगी शाम और

    यह हारा हुआ

    अकेलापन

    मैंने फिर मणि देकर पाला विषधर छोड़ दिया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 23)
    • रचनाकार : कैलाश वाजपेयी
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1988

    संबंधित विषय

    यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए