शून्य

shunya

भूपिंदर पुरेवाल

मैं शून्य से भटकता

शून्य की ओर चला आया हूँ

शून्य आदि

शून्य अंत

मेरे हाथों में छैनी थी

बिंदु तोड़ने में लगा रहा

अन्य बिंदुओं का सर्जन करता रहा

आवाज़ों के बीच घिरी

आहिस्ता-आहिस्ता पगलाती

छटपटाती मेरी आवाज़

बहुत आवाज़ें

जो जोड़े रही अनेक आवाज़ें

उनकी थरथराहट के पीछे

उलझा धुआँ

बिखरे रंगों की भीड़

इन सभी का सर्जक मैं नहीं

शहर के चौक में उभर आए हैं

ये सब स्वतः ही

मेरा दोष मात्र इतना कि

शहर से बना रहा संवाद

मैं शहर के पास अपने हाथ

माथा अंग-प्रत्यंग गिरवी धर आया हूँ

अस्तित्व है, प्रतिछाया नहीं

आँख है, दृष्टि नहीं

जीभें और अधबोल हैं

जो भी कमाया

भोगा

शहर ही मालिक है सबका

शहर मेरा है

कहो शहर मैं तुम्हें अलविदा कैसे कहूँ?

कैसे हाज़िर करूँ पीठ

मैं नया ग़ुलाम

जिसे वस्तुएँ यहाँ से उठा

वहाँ बेच आती हैं

और मैं एक समय सभी दिशाओं में

दौड़ रहा हूँ

शहर को एक ही समय

नफ़रत और प्रेम करता

कहाँ से खोजें अन्य शहर

राजमार्ग पर गरजते

आग की जीभ वाले अजगर

स्वरों से लपटें निकलतीं—

तलवार लेकर यहाँ लड़े

यहीं मरे

यहीं जीए

फैले हैं शहरों से बाहर

इन्हीं की परतों में अन्य शहर भी

शरीरों में

ये शहर फैल चुके हाशियों में

हमारी नाराज़गी में

रोम-रोम में धँस चुका है शहर

शहरों में फैल चुके अन्य कई शहर भी

तुम यहीं गिनोगे उसके अंतिम वर्ष

यहीं मिलेंगे तुम्हें चाँदी रंग जैसे बाल

यहीं पड़ोसी, भाईबंद

दिनों को अन्य दिनों के लिए प्रतीक्षारत

यही अघबोल, अधसुने बोल

अधभोगा यौवन

जीवित रखने के लिए

शहर के पास संबंधों की कड़ी है

काँच की आकर्षक दीवारें हैं

प्लेट में बासी रोटी का टुकड़ा

यों मैं स्वयं

अपने खिलाफ़ लगातार लड़ी जा रही

जंग में शामिल हूँ

अब शहर जानता है

किस तीर को

कहाँ से मेरा पाँव चीरकर निकलना है

और कब मुझे मरहम चाहिए।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 326)
  • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2014

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