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शब्द कभी नहीं मरते

shabd kabhi nahin marte

अखिलेश जायसवाल

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अखिलेश जायसवाल

शब्द कभी नहीं मरते

अखिलेश जायसवाल

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    एक पतंग डोर से कटती है

    और हिलते हुए हाथ जैसे

    अलविदा बोल जाती है हमारी नज़रों को

    और अदृश्य हो जाती है।

    एक घसीटी जाती चीख़

    धीरे-धीरे इतनी दूर चली जाती है

    कि सुनाई नहीं पड़ती।

    लेकिन तो पतंग

    कहीं जा छिपती है,

    ही चीख़ शाँत हो जाती है।

    हमारी अपाहिज संवेदना

    उनका पीछा नहीं कर पाती है।

    चीज़ें कभी लुप्त नहीं होतीं

    संवेदना के सापेक्ष अंतर्धान होती हैं,

    शब्द कभी नहीं मरते

    संवेदना के कानों में जमे मैल के कारण

    अश्रव्य हो जाते हैं।

    नाक की ओट जब बीच में हो

    तब एक आँख दूसरी आँख की लाली और आँसू

    कहाँ देख पाती है।

    यहीं कभी पास से निकली होगी

    उसके गालों को छूकर आई हुई हवा

    लेकिन मेरी मोटी खाल में

    सनसनी नहीं पैदा हो सकी।

    कालिदास की यक्षिणी की तरह

    उसने भी बादलों पर

    अँगुलियों से मेरा नाम लिखा होगा

    जो पानी की बूँदों के साथ

    मेरे आँगन में गिरा होगा

    लेकिन पढ़े जा सकने के कारण बिखरा होगा।

    कोई अर्थ नहीं है

    दीवार पर लिखी उस इबारत का

    लोग वहाँ पेशाब करते हैं

    और आगे बढ़ जाते हैं।

    चिकित्सा शास्त्र में गजचर्म नाम से

    एक व्याधि का उल्लेख है

    जिसमें आदमी की खाल मोटी हो जाती है

    लेकिन जब समय ने अपने मुहावरों का अर्थ

    बदल लिया है

    तो कह सकते हैं कि

    कुत्तों का गला भौंक-भौंककर बैठ जाता है

    लेकिन हाथी के चमड़े में

    एक भी भूँक नहीं घुस पाती।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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