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अगर अंदर रखे दिये बल उठें

agar andar rakhe diye bal uthen

डिलन थॉमस

अन्य

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डिलन थॉमस

अगर अंदर रखे दिये बल उठें

डिलन थॉमस

और अधिकडिलन थॉमस

    अगर अंदर रखे दिये बल उठें तो हम पाएँगे ऊपर चित्रित,

    अजनबी जोत के अठकोन में अंकित संत मुख-मंडल

    धुँधला जाएगा

    और झाँक उठेगा एक कामासक्त किशोर, प्रभु अंजलि से

    निर्वासित होने के पहले दो बार असमंजस से इधर-उधर

    देखते हुए

    रूप अपने अंतरंग अँधकार में

    गठा मांसल है, पर झूठे दिन के उगते ही

    दीखता है कि वही होठ हैं जिनसे राख झर रही है

    और सभी वस्त्र के हटते ही हज़ारों वर्ष पुराने उरोज

    अनावृत हो गए हैं।

    मुझसे कहा गया कि केवल हृदय का तर्क ठीक होता है,

    लेकिन हृदय, तर्क की तरह, कहीं नहीं ले जाता;

    मुझसे कहा गया कि आवेशों का तर्क स्वीकारो और आवेश

    ऐसे हैं कि क्रिया की गति ही बदल जाती है।

    पलक मारते हमवार हो जाते हैं नीचे खेत ऊँची छतें,

    यकसाँ हो जाते हैं,

    और इतनी तेज़ी से अतिक्रमित होता है समय कि

    वही समकालीन मैं पाता हूँ अपने को

    आदिम मिश्र की हवाओं में लहरा रहे हों बाल जिसके,

    ऐसा आदि-पुरुष

    मैंने वर्ष पर वर्ष अनुश्रुतियों के सुने हैं

    और इतने वर्षों में कुछ तो परिवर्तन आए

    वह गेंद जो मैंने सुदूर बचपन में पार्क में खेलते हुए फेंकी थी

    अभी तक तो ज़मीन तक नहीं पहुँची है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 125)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : डिलन थॉमस
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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