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तप

tap

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

अन्य

अन्य

और अधिकतिरुवल्लुवर

    261

    तप नियमों को पालते, सहना कष्ट महान।

    जीव-हानि-वर्जन तथा, तप का यही निशान॥

    262

    तप भी बस उनका रहा, जिनको है वह प्राप्त।

    यत्न वृथा उसके लिए, यदि हो वह अप्राप्त॥

    263

    भोजनादि उपचार से, तपसी सेवा-धर्म।

    करने हित क्या अन्य सब, भूल गए तप-कर्म॥

    264

    दुखदायी रिपु का दमन, प्रिय जन उत्थान।

    स्मरण मात्र से हो सके, तप के बल अम्लान॥

    265

    तप से सब कुछ प्राप्य हैं, जो चाहे जिस काल।

    इससे तप-साधन यहाँ, करना है तत्काल॥

    266

    वही पुरुष कृतकृत्य है, जो करता तप-कर्म।

    करें कामवश अन्य सब, स्वहानिकारक कर्म॥

    267

    तप-तप कर ज्यों स्वर्ण की, होती निर्मल कान्ति।

    तपन ताप से ही तपी, चमक उठें उस भाँति॥

    268

    आत्म-बोध जिनको हुआ, करके वश निज जीव।

    उनको करते वंदना, शेष जगत के जीव॥

    269

    जिस तपसी को प्राप्त है, तप की शक्ति महान।

    यम पर भी उसकी विजय, संभव है तू जान॥

    270

    निर्धन जन-गणना अधिक, इसका कौन निदान।

    तप नहिं करते बहुत जन, कम हैं तपोनिधान॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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