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संलाप

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मैथिलीशरण गुप्त

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और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    थक कर तनु ने कहा—“नहीं अब कुछ वश मेरा।”

    मैंने मन से कहा—“राम रक्षक है तेरा।”

    कृषि से बोला मेघ—“बढ़ाता हूँ मैं तुझको,

    अपना जीवन मूल मानती रहना मुझको।”

    कृषि बोली—“फिर मुझे मारते हो पत्थर क्यों?

    प्रिय हो, पर तुम कभी-कभी हो निष्ठुरता क्यों?”

    बोला घन गंभीर-गिरा-पूर्वक भूतल से—

    “करता हूँ मैं आर्द्र मुझे कैसा निज बल से?”

    भूतल ने तब कहा कि—“इसमें क्या संशय है,

    मिला कहाँ से भला तुम्हें यह पावन पय है?”

    घनमाला ने कहा सूर्य के सम्मुख जाकर—

    “तेरा सारा तेज देखती हूँ मैं आकर!”

    बोला रवि मुँह फेर कि—“यह उसका ही फल है,

    स्वकरों से जो तुझे पिलाया मैंने जल है!”

    बोली राका कि—“है अमावस्या तू काली,

    फैल रही है किंतु देख मेरी उजियाली।”

    कहा अमा ने—“स्वत्व किंतु मेरा क्या कम है?

    दिया गया अधिकार यहाँ दोनों को सम है।”

    फल से तरु ने कहा कि—“मैं गौरव हूँ तेरा,

    रखता है अभिलाष देख सब कोई मेरा।”

    “ऐसा गौरव नहीं चाहिए”—बोला तरुवर—

    “इसीलिए हैं लोग मारते मुझको पत्थर।”

    कहा बाण ने—“काम दूर तक मैं ही दूँगा,”

    बोला चाप—“परंतु सहायक जब मैं हूँगा।”

    प्रत्यंचा ने कहा—“कहो सब अपनी-अपनी,”

    कर बोला—“हे मुझे मौन माला ही जपनी॥”

    बोला विकल पतंग दीप में जलता-जलता,

    “फल ऐसा ही स्नेह-विटपि पर है क्या फलता?”

    कहा दीप ने—“महा कठिन है इसका धारण,

    पहले ही जल रहा यहाँ मैं जिसके कारण॥”

    बोला चुंबक—“नीति-रीति कैसी है मेरी,”

    कहा सार ने—“प्रीति खींच लाती है तेरी॥”

    “मैं हूँ कैसी श्रांतिहारिणी?”—बोली छाया,

    आतप बोला—“तभी मुझे है तेरी माया?”

    कहा वृक्ष ने—“उच्च और उपकारी हूँ मैं,”—

    बोली बल्ली—“तभी सदैव तुम्हारी हूँ मैं॥”

    कहा अनल ने—“अहा! तेज मेरा है कितना।”

    जल ने उत्तर दिया कि—“मैं शीतल हूँ जितना!”

    कहा व्योम ने—“भूमि! पड़ी नीचे तू मरती,”

    “किंतु शून्य तो नहीं?—व्योम से बोली धरती॥

    कहा सूरज ने—“ताल गल-स्वर का गहना है।”

    थपकी देकर बोल उठा कर—“क्या कहना है!”

    कहा वृषभ ने—“स्कंध सबल सुंदर है किसका?”

    कहा जुँवें ने कि—“मैं बनूँ आरोही जिसका!”

    असि बोली—“है कौन सहायक और समर में?”

    “हाँ, जो रक्षा करे”—ढाल बोली उत्तर में॥”

    कर्णिकार ने कहा—“रंग कैसा है मेरा?”

    कहा बकुल ने—“और गंध कैसा है तेरा?”

    “तू काली है” उर्वरा सुन ऊसर की बात

    बोली—“मेरा दोष यह तेरा गुण हो तात।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 270)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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