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सहधर्मिणी

sahdharminai

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

अन्य

अन्य

तिरुवल्लुवर

सहधर्मिणी

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    51

    गृहिणी-गुण-गण प्राप्त कर, पुरुष-आय अनुसार।

    जो गृह-व्यय करती वही, सहधर्मिणी सुचार॥

    52

    गुण-गण गृहणी में हो, गृह्य-कर्म के अर्थ।

    सुसंपन्न तो क्यों हो, गृह-जीवन है व्यर्थ॥

    53

    गृहिणी रही सुधर्मिणी, तो क्या रहा अभाव।

    गृहिणी नहीं सुधर्मिणी, किसका नहीं अभाव॥

    54

    स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही, क्या है पाने योग्य।

    यदि हो पातिव्रत्य की, दृढ़ता उसमें योग्य॥

    55

    पूजे सती देव को, पूज जगे निज कंत।

    उसके कहने पर ‘बरस’, बरसे मेघ तुरंत॥

    56

    रक्षा करे सतीत्व की, पोषण करती कांत।

    गृह का यश भी जो रखे, स्त्री है वह अश्रांत॥

    57

    परकोटा पहरा दिया, इनसे क्या हो रक्ष।

    स्त्री हित पातिव्रत्य ही, होगा उत्तम रक्ष॥

    58

    यदि पाती है नारियाँ, पति पूजा कर शान।

    तो उनका सुरधाम में, होता है बहुमान॥

    59

    जिसकी पत्नी को नहीं, घर के यश का मान।

    नहिं निंदक के सामने, गति शार्दूल समान॥

    60

    गृह का जयमंगल कहें, गृहिणी की गुण-खान।

    उनका सद्भूषण कहें, पाना सत्संतान॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल: भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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