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गौला

gaula

कुमार मंगलम

अन्य

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और अधिककुमार मंगलम

    दूर पहाड़ की तराइयों में

    हहराती

    गौला

    सुन्न कर देने वाली ठंडी हवाएँ

    और

    पत्थर-सा दिन

    सर्द शाम के धुँधलके में हिला है—

    मैं अपने फेफड़ों में भर लेना चाहता हूँ

    बहुत-बहुत सारा धुआँ

    नदी की तेज़ धारा में दुःख सिराते लोग

    ऊबड़-खाबड़ पत्थरों के बीच

    चिताएँ जल रही हैं

    अगिन-लपटें

    पानी में कुछ दूर जाकर

    शांत होती जा रही हैं

    जैसे मेरे हृदय की आँच हो—

    मैं सिराता हूँ

    एक याद

    और

    अपने होने के संपूर्ण अस्तित्व को

    एक नदी से

    कितनी आशाएँ हैं मुझे

    नदियाँ अपने दुःख कहाँ सिराती हैं?

    जो नदियाँ पहाड़-दुःखों से रिसकर बनी हैं उनमें

    जीवन का अनंत उन्माद नहीं

    मृत्यु का तेज़ है

    मैं अपने जीवन को सिराता हूँ

    एक मरती हुई नदी में

    कि नदी-नदी नहीं

    दुःख की अनंत कथाएँ हैं

    आख़िरकार!

    नदियाँ अपने दुःख कहाँ सिराती हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुमार मंगलम
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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