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दुबारा वसंत

dubara vasant

बोरीस पस्तेरनाक

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बोरीस पस्तेरनाक

दुबारा वसंत

बोरीस पस्तेरनाक

और अधिकबोरीस पस्तेरनाक

    ट्रेन जा चुकी है। स्याह है तट।

    कैसे ढूँढूँगा मैं अपना रास्ता अँधेरे में?

    आसपास सबकुछ कितना अस्पष्ट है

    हालाँकि गया सिर्फ़ एक दिन, एक रात गुज़री है।

    पटरियों पर लोहा पिटने की आवाज़ बुझ चुकी है।

    अचानक यह कैसा तिलिस्म,

    यह कैसा ऊल-जलूल, यह कैसी स्त्रियों की गोष्ठी?

    शायद यह करिश्मा है शैतान का?

    कहाँ सुने थे मैंने बातचीत के ये टुकड़े

    पिछले साल

    ओह, शायद यह वह झरना है

    जो झुरमुट से आज रात बाहर निकल आया है।

    निश्चय ही यह वह घरेलू तालाब है

    जो बर्फ़ को ढकेलकर पहले की तरह ऊपर उठ आया है।

    एक और करिश्मा है।

    दुबारा वसंत है।

    वसंत है यह वसंत है।

    टोना है यह उसका जादू है

    वह देखो नभ्रा के पेड़ के पीछे वह उसका जैकेट है,

    रूमाल है, पीठ है और कमर है।

    चट्टान के कगार पर खड़ी हिम-कन्या है

    वही है जिसे लेकर गुफा के भीतर से

    उस मतवाले गपोड़िये की बड़बड़ बहती चली रही है।

    वही है जिसके सामने, हर रोड़े-पत्थर को बाढ़ में लपेटती

    लपकती हुई नदियाँ खो जाती हैं उस जल-भरे बादल में

    जो किसी चट्टान से फिसलकर

    धूप में नहाते जल-प्रपात पर गिरता है।

    दाँत किटकिटाती हुई ठंड में

    बर्फ़ीली नदी है वह बह रही है कगार पर

    तालाब पर और वहाँ से और किसी पात्र में :

    उद्दाम जल का स्वर है यह, जीवन की बेहिसाब अभिव्यक्ति है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 55)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : बोरीस पस्तेरनाक
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

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