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अखिलेश श्रीवास्तव

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और अधिकअखिलेश श्रीवास्तव

    मेरा हिंदू होना या मुस्लिम होना इतनी छोटी बात है

    जितना ब्रह्मांड में धरती होना

    चूँकि मुझे अखंड ब्रह्मांड का आयतन नहीं पता

    सो इस होने को ही अपनी दुनिया मान लेता हूँ

    जिस साँचे में डाला गया

    उसी का आयतन

    उसी का रूप धर लिया

    आत्मा की प्रकृति निश्चित ही द्रव होती होगी

    असावधानी से कभी बिखर गया

    तो सँभाल लिया गया दूसरे साँचे में

    दूसरे साँचे के हिसाब भर पारदर्शी हुआ

    तीसरे साँचे के हिसाब भर उन्मुक्त

    यह भी अंतिम नहीं है

    चौथे-पाँचवें से होते हुए मुझमें पहले तक लौट आने की संभावना है

    तुम्हें क्या याद है

    तुमने पिछले साल पहले किस प्याली में पी थी चाय

    दरअसल, साँचा चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए

    ठोक बजाकर देखने का मौक़ा भी

    रीत तो नहीं जाऊँगा इसमें जाते ही

    थोड़ा कम तो नहीं बचूँगा अंत तक

    मैं सदियों रहा हूँ बिना साँचे के

    सोचा था चारों ओर से ढका-छुपा रहूँगा तो बचा रहूँगा

    पर इन साँचों की पेंदी में खोट है

    जितना आदमी था

    अब उतना भी आदमी नहीं बचा मेरे भीतर!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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