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राह देखूँ

raah dekhun

सरिता पदकी

अन्य

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सरिता पदकी

राह देखूँ

सरिता पदकी

और अधिकसरिता पदकी

    राह देखूँ

    कातर दुखती कातर वेला में

    ढककर आती है हृदय पर जब गहरी छाँह

    निश्वास लूँ —“आएगा कोई आएगा

    मेरा यह मूढ़ अकारण सौहृद जानकर

    छाती से लगा लेगा और सारा भारीपन झर जाए।

    ऐसे स्वप्न मिलने में खो जाते हुए

    अनजाने आँखें गीली हो जाए

    राह देखूँ।

    राह देखूँ

    प्रसन्न हँसते हुए मध्याह्न में

    ऊपर नीला निरामय फूला हो हर्ष असीम

    नीचे जल में ही खेलता हुआ चमकता रेशम

    उस वैसे नाचते हुए स्वच्छंद तरल आनंद में

    कोई आए-आए

    नयनों में लेकर विस्मित स्निग्ध नीलिमा

    और अधरों पर हँसता हुआ कुछ कूंजन,

    फिर भूलकर सब कुछ

    चेतना केवल नीली लय की बच जाए

    राह देखूँ

    राह देखूँ

    नभ में श्रावण के श्यामल मेघ जब झुक आए

    अंतर के वीणारव कल्लोलित हो उठे

    वह नाद, वह वेध, वह सुखद व्यथा

    सब-कुछ असह्य हो जाए

    कोई उन्मद तूफ़ानी हवी की तरह बाँहों में भर ले

    चेतना जगाते हुए प्राण अचेतन हेकर मिल जाए

    और क्षितिज उजला होने पर तृप्ति के स्मित

    उसमें फैलाकर मिला दूँ

    राह देखूँ।

    राह देखूँ

    राह देखूँ कभी भी, जब लगे कि राह देखूँ

    क्यों शोक हो? मिलन हो या हो

    राह देखूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 619)
    • रचनाकार : सरिता पदकी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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