पुरवा

purva

आशीष त्रिपाठी

ठेठ हिंदुस्तानी गर्मी-सी गर्मी है यह

हवा तपती ही जाती है इस दुपहर

जलाती है त्वचा को

छाया का टुकड़ा

किसी बिल्कुल अपने की तरह तन जाता है सर पर

और लू से जलती देह ही नहीं

आत्मा भी सुकून से खोल देती है अपने बंध

पुरवा में समाया

मिट्टी के घडे़ का आठ-दस घूँट पानी

जैसे जीवन-सा मिलता है देह को

पुरवा मिलता है होंठो से

जैसे माटी मिलती है माटी से

पुरानी नाद का छोटा प्रतिरूप

यह पुरवा

सुडौल

अपनी ही तरह का ख़ास

प्लास्टिक की अति के समय में

पुराने जीवन का विनम्र योद्धा

खड़ा है उसके सामने

बिना सकुचाए

शायद ललकारता-सा तुम

ख़ुद के ही जीवन को संकट में डालने वाली

लोलुप सभ्यता की नई खोज

और हम सबसे पुराने साथी मनुष्य के

तुम बने रहोगे धरती पर

मनुष्यों के जीवन पर

संकट की तरह

एक हम हैं हमें देखो

फेंके भी गए तो मिल जाएँगे उसी माटी में जहाँ से उपजे

पुरवा को हाथ में लेते

मेरी आखों में तैरती हैं

बचपन में गाँव में बितायी गर्मियाँ

और वे अनथक उत्साह से भरी दुपहरें

एक बग़ीचे से दूसरे बग़ीचे

एक घर से दूसरे घर के बीच

दौड़ते भागते हमारे पैर

और इस भागमभाग में सूखते हमारे कंठों में आया

मिट्टी के छोटे ज़मीन में थोड़े धँसे

घैलों के पानी की वह ठंडक

और वह स्वाद

मेरे होंठों से लगते ही यह पुरवा

खोलता है एक दरवाज़ा

पुरखों की दुनिया का

स्रोत :
  • रचनाकार : आशीष त्रिपाठी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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