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पुकार

pukar

रुचि बहुगुणा उनियाल

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और अधिकरुचि बहुगुणा उनियाल

    तुम्हें पुकारती हुई मेरी आवाज़ के कंपन से

    थरथराती है हवा की देह

    वेगवती पहाड़ी नदी के फेनिल स्वच्छ बहाव में भी

    ठिठक कर रुक जाती हैं मछलियाँ

    इस कातर पुकार का स्वर

    छेड़ता है सिम्फ़नी का एक और अभिनव सुर

    धूँ-धूँ कर जलती हैं तुमसे मिलने की

    कोमल कामनाएँ और मेरी आत्मा से उठती लपटें

    दूर पहाड़ी की चोटी पर रँगती हैं बुरुंश के

    फूलों की सुकोमल पंखुड़ियाँ

    बिछड़ जाने की पीड़ा से चोटिल

    और तुम्हारे स्वर की छुअन याद करती आत्मा

    जैसे एक पहाड़ी शहर हो

    जिसकी हर गली के मोड़ पर

    तुम्हारा इंतज़ार करती ठिठुरती स्मृतियाँ उकड़ूँ बैठी हैं

    कहीं दूर पहाड़ी की धार पर

    उतरती नवोढ़ा वधू-सी साँझ के आँचल में

    तुम्हें लगाई पुकार

    बूटों की तरह टाँकती है तारों की लड़ी

    गहराती रात की कालिमा में ऊँगलियाँ डुबोकर

    प्रतीक्षा में थकी आँखों को सुरमा लगाती हूँ

    सुनो प्यार मेरे...

    बस एक बार तुम पुकारना

    शरीर के शिथिल होने से पहले

    मुझे अपने दिए नाम से

    इन सब जंजालों से दूर

    मृत्यु की ठंडी गोद में सोने के लिए

    मेरी आत्मा कात लेगी

    तुम्हारे स्वर से कुनकुना सूत!

    स्रोत :
    • रचनाकार : रुचि बहुगुणा उनियाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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