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प्रेम पर

prem par

उपांशु

अन्य

अन्य

उपांशु

प्रेम पर

उपांशु

और अधिकउपांशु

    खिंचती है

    नाख़ून से मेरी

    पीठ पर

    आकृति

    नग्नता

    पलकों से ढकी हुई

    वक्षस्थल में कंपन का एहसास है

    निरर्थक

    शब्दों की तरह

    इस वक़्त जब

    गलियों में उलझे हुए मकानों की पहली उबासी

    छतों पर प्रकाश में उभरती है

    दीवारों का आलिंगन करती शाखाएँ

    अँगड़ाई में करियाए ईंटों पर ओस पोंछती है

    ढके होते हैं

    शरीरों से प्रेमी

    हमारी तरह

    चर्म की सीमाओं पर

    क्षितिज थामने की लालसा में

    लिपटते हैं होंठ

    होंठों पर

    जिह्वा से

    दाँतों पर

    शाख़ों पर घुटती पत्तियों में

    हवा की सरसराहट से

    रात भर की ठंडक

    ओस से गीली दीवारें महसूस करती हैं

    आहों में सूखते हैं होंठ

    और व्याकुल प्रेमी छिप जाते हैं

    नग्नता के आवरण में

    शब्दों-सी अकर्मकता से बोझिल मन प्रेम जैसा हृदयविदारक

    कुछ स्पंदन में छोड़ जाना चाहता है दूसरे की रूह में

    और पाता है चर्म

    जिस पर प्रेम निर्जीव

    दीवारों पर सूखती ओस

    जैसा भाप भी हो सका

    स्रोत :
    • रचनाकार : उपांशु
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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