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प्रतिमाओं के सपने

pratimaon ke sapne

रमेश क्षितिज

अन्य

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रमेश क्षितिज

प्रतिमाओं के सपने

रमेश क्षितिज

और अधिकरमेश क्षितिज

     

    बरसात के एक दिन, चलते-चलते
    बीच राह में ढह गया एक युग-नायक
    और बन गया प्रतिमा
    अचानक, फैल गई ख़बर शहर में
    उस सनसनीपूर्ण ख़बर के पीछे-पीछे
    इकट्ठा होने लगा लोगों का हुजूम

    जिस-जिस ने उस प्रतिमा को छुआ या देखा
    वे सब – चलते जाने वाले पूर्ण क़द के,
    बैठने वाले अर्ध क़द की प्रतिमा बन गए
    प्रतिमाओं-ही-प्रतिमाओं से भर गया पूरा शहर
    और सिरहाने बहने लगा दरिया प्रतिमाओं के अश्कों से

    प्रतिमाओं ने देखा चुपचाप
    नल पर खुकरी में लगे ख़ून को धोता हुआ युवक
    सर कटे हुए माँ-बाप के लहू के सैलाब में
    रोते-रोते सोए हुए अबोध बच्चे
    और बेलचे से बालू कुरेदते वक़्त निकले मुर्दों के
    शक्करखंडी-से हाथ-पैर

    नहीं भगा पाए प्रतिमा
    उन्हीं के कंधों पर बैठकर बीट करने वाले गिद्धों को
    और चेहरे पर भिनभिनाने वाली हरी मक्खियाँ

    बे-ज़ुबाँ प्रतिमाओं की आँखों में
    अभी ख़त्म नहीं हुए हैं सपने,
    कोई आएगा इक दिन
    जगाएगा सभी प्रतिमाओं को अपने स्पर्श से
    फिर से जीवन खिलेंगे शहर में,
    मनाए जाएँगे उत्सव
    आगे-आगे निकलेंगी झाँकियाँ
    और बजाए जाएँगे ढोल-नगाड़े

    ज़िंदगी जिंदाबाद!

              
    स्रोत :
    • रचनाकार : रमेश क्षितिज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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