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प्रणय-निवेदन

pranay niwedan

ज़ुबैर सैफ़ी

अन्य

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ज़ुबैर सैफ़ी

प्रणय-निवेदन

ज़ुबैर सैफ़ी

और अधिकज़ुबैर सैफ़ी

    संन्यासिन अपनी बाँहे फैलाओ,

    लिपटा लो स्वयँ से खींच लो मुझसे मेरा अंतस,

    निपट अकेला हूँ

    ढाँप लो अपनी श्वास-गंध में

    कि बरसों से घ्राण के वन में वीराना है,

    काँपती हैं, किसी के हाथ छूटने से अब तक हथेलियाँ,

    रोते हैं पैर, भीग जाते हैं हाथ,

    सब इधर की जगह पर सब उधर हो गया है,

    अपनी तर्जनी से मन का सूरज छुओ

    और अपने चरणों में पिघला दो

    इस शरीर की माला के मोम-मनके!

    संन्यासिन!

    अपने साथ ले चलो मुझे!

    मैं अभागा! अपने दल से छूटा हुआ पराजित राजा हूँ,

    मुझे स्वयं में सम्मिलित कर लो,

    नहीं भटक सकता

    मेरे दिन बूढ़े हो गए हैं

    और रात उदास नदी,

    संन्यासिन!

    मुझे अपने आँचल की भीख दो!

    भर लो अपने पाश में,

    मेरी आत्मा रास्ता चाहती है निकलने का!

    मेरी आँखों में डेढ़-डेढ़ हाथ रेत धँस गई है,

    मैं समूचा मैला हो गया हूँ!

    अपने होंठ मेरे वक्ष पर धरो,

    मैं इच्छा-मृत्यु माँगता हूँ!

    दे सकोगी?

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज़ुबैर सैफ़ी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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