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कामगार

kamgar

अनुवाद : सुरेश सलिल

ज्याँ आर्थर रम्बो

अन्य

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और अधिकज्याँ आर्थर रम्बो

    फ़रवरी महीने की एक गुनगुनी भोर

    अनचाहे दक्खिन ने जोड़ दी फिर

    हमारे गर्हित भिखमंगे दिनों की

    हमारी कच्ची ग़रीबी की यादों की डोर।

    एक सूती घाँघरा था हेनरिका के पास/भूरे-सफ़ेद चौखाने वाला

    हो गए होंगे जिसे पहने हुए सौ साल

    और एक छोटी-सी हैट, फीते टँके थे जिसमें नीले-हरे-लाल

    और एक न-कुछ-सा रेशमी रूमाल—

    यह सब कुछ था मातमी पोशाक से भी बढ़कर मातम जगाने वाला।

    हम निकले घूमने शहर के आसपास के इलाक़े में

    लदा खड़ा था आसमान

    और उस दक्खिनी बयार ने और भभका दिया

    राँदे हुए बाग़ीचों-अधसूखी चरागाहों से उठती दुर्गंध को।

    बीवी मेरी उस दुर्गंध से उतनी खिन्न नहीं हुई, जितना कि मैं।

    कुछ ऊँची पगडंडी पर चलते हुए/उँगली के इशारे से

    उसने दिखाई मुझे

    छोटी-छोटी मछलियाँ कुलबुलाती हुई

    पिछले महीने की बाढ़ की निशानी बचे

    एक जोहड़ में।

    शहर अपने कारख़ानों के धुएँ और शोर के साथ

    रेंगता रहा हमारे पीछे राहों के साथ-साथ लगा/दूर तक...

    ओह, दूसरी दुनिया, आसमानी नेमतों से लदी-फदी छाया-भूमि!

    दक्खिनी सूबे ने याद दिला दी मुझको

    बचपन के उस भयानक दौर की,

    गर्मियों के दिन मुझमें भर गए निराशा,

    ज्ञान और सामर्थ्य की वह अकूत परिमात्रा

    भाग्य ने जिसे सदा मुझसे दूर-दूर रखा।

    नही! हम अपनी गर्मियाँ इस लोभी देश में कभी नहीं बिताएँगे

    जहाँ हम यतीम लगनहे के सिवा कभी कुछ नहीं बन पाएँगे।

    यह कड़ियल बाँह क़त्ई नहीं ढोएगी अब ‘मीठी-मधुर यादें।’

    स्रोत :
    • पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 35)
    • रचनाकार : ज्याँ आर्थर रम्बो
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2003

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