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ठेका मज़ूर का ख़त

theka mazur ka khat

अनुवाद : प्रभात त्रिपाठी

एंतोनियो जेसिंतो

अन्य

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एंतोनियो जेसिंतो

ठेका मज़ूर का ख़त

एंतोनियो जेसिंतो

और अधिकएंतोनियो जेसिंतो

    मैं तुम्हें एक ख़त लिखना चाहता था

    मेरी प्रिया

    जिससे तुम्हें पता चलता

    तुम्हें देखने की इस इच्छा का

    तुम्हें खो देने के इस डर का

    उपकार से ज़्यादा बड़े इस अहसास का

    जो मैं अनुभव करता हूँ

    इस निर्व्याख्या वेदना का

    जो मुझे सालती रहती है

    इस चाह का

    जिसके प्रति एकांत समर्पण में

    मैं जीता हूँ;

    मैं तुम्हें एक ख़त लिखना चाहता था

    मेरी प्रिया।

    अंतरंग गोपनीयताओं का एक ख़त

    तुम्हारी स्मृति का

    तुम्हारा

    मेंहदी-से लाल तुम्हारे ओंठों का

    कीचड़ से काले तुम्हारे केशों का

    शहद-सी मीठी तुम्हारी आँखों का

    जंगली नारंगी-से सख़्त तुम्हारे स्तनों का

    तुम्हारी विड़ाल चाल का

    तुम्हारे दुलराने की छुअन का

    ऐसा जो मुझे और कहीं नहीं मिलता

    मैं तुम्हें एक ख़त लिखना चाहता था

    मेरी प्रिया

    जो हमें याद दिलाता हमारे भटकने के दिनों की

    हमारी रातों की, जो गुम हो गई हैं लंबी घासों में

    उस छाँह की, जो हम पर पड़ती है आलूचे के वृक्ष से

    अंतहीन ताड़-वृक्षों से झरती चाँदनी की

    हमारी कामना के उन्माद की

    हमारे वियोग की कड़ुआहटों की

    मैं तुम्हें एक ख़त लिखना चाहता था

    मेरी प्रिया

    जिसे तुम नहीं पढ़ सकतीं बिना गहरे निश्वास के

    जिसे तुम छिपातीं अपने पापा बोम्बो से

    जिसे तुम बचाकर रखतीं अपनी ममा कीजा से

    जिसे तुम विस्मरण के ठंडेपन से परे

    बार-बार पढ़तीं

    एक ख़त जिसके लिए पूरे किलोंबो में

    तुलना के लिए नहीं है कोई दूसरा

    मैं तुम्हें एक ख़त लिखना चाहता था

    मेरी प्रिया

    जो तुम तक पहुँचेगा गुज़रती हवाओं के हाथ से

    एक ख़त

    जिसे समझ सकते हैं

    काजू और कॉफ़ी के पौधे

    लकड़बग्घे और भैंसें

    घड़ियाल और रुपहली मछलियाँ

    ताकि वह अगर रास्ते में हवा से छूट जाए

    तो जानवर और वृक्ष

    हमारे तीक्ष्ण दुखों के प्रति करुणा से भरे

    गीत से गीत तक

    रुदन से रुदन तक

    बड़बड़ाहट से बड़बड़ाहट तक

    पहुँचाएँगे तुम तक

    शुद्ध और गर्म

    जलते हुए शब्द

    दुखभरे शब्द उस ख़त के जो

    मैं तुम्हें लिखना चाहता था मेरी प्रिया

    पर मेरे प्रिय मैं नहीं समझ पाता

    ऐसा क्यों है, ऐसा क्यों है, ऐसा क्यों है

    कि तुम नहीं पढ़ सकतीं

    और आह—यह कैसी नाउम्मीदी है

    कि मैं लिख नहीं सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 425)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : एंतोनियो जेसिंतो
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1989

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