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पूर्ण व्यथा

poorn wyatha

बलिहार सिंह रंधावा

अन्य

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बलिहार सिंह रंधावा

पूर्ण व्यथा

बलिहार सिंह रंधावा

और अधिकबलिहार सिंह रंधावा

    ज़िंदगी

    सुनो जंगल में

    पूर्ण का प्रवचन

    नज़र हुई जब

    पूर्ण-व्यथा

    देखोगे टीला डोलता।

    पूर्ण को

    पूर्णत्व कभी

    लुभाए

    सदा अपूर्ण

    रहने की वह ठाने

    पूर्ण भ्रम में

    छिनी सुंदरां...

    जंगल-जंगल खोज रहा।

    ज़िंदगी

    सूखी नदी के तट पर

    पूर्ण बैठ गया

    कैसी पीठ

    द्वार को अर्पित

    हाथ से गिरा कटोरा

    जिंदगी...

    रुका, सूर्य था

    अलख जगाता

    बीते समय

    पश्चात्ताप करता

    दिल की प्यास

    बुझाओ सुंदरां

    कहता-कहता रह गया

    जीवन

    जीवन को

    पूर्ण की

    प्रतिछाया ने घेरा

    कहा हाल

    कभी नहीं फ़रियाद लगाई

    वाह रे पूर्ण जोगी।

    पाँवों तले

    उजाले मसले

    धूल धुरंधर

    क्या जानें आनंद फ़क़ीरी

    समझेंगे

    चख लेने दो

    धीमी गति से

    आए निरे अँधेरे।

    ज़िंदे !

    जब पूर्ण ने

    सूर्य का चोला पहना

    एक उजाले का टुकड़ा

    उठा और फिर

    दौड़ गया।

    उसने पूछा

    हवा बाँटती गंध

    गंध भी कलियाँ?

    किस पराग को बाँट रही है?

    है क्या कोई

    सुंदरां आहें भरती

    चुनकर टुकड़े कुछ उजास के

    माथा पटका।

    हे मेरी जीवन ज्योति!

    कुछ टुकड़े आए आलोक के

    पूर्ण को झकझोर दिया

    ओ, जंगल के सुल्तान

    जंगल रोता

    देख

    विभूति आँगन घूमें

    जो जोगी के

    अंग रमती।

    काँप उठे

    आसन कैलाश पर

    योग

    योगेश रुका

    जब प्रवाह लौटाया

    पूर्ण आया।

    ज़िंदगी

    सुनो, पूर्ण की होश

    याद सब लौट आई

    झूम उठे आकाश

    धरती नाचती

    पूर्ण ने उतार दी मुंदरी

    अँगुठियाँ को छोड़ दिया

    साँसों में घुल रही थी

    सुंदरां

    गोरख ने माथे पर

    सलवट डालकर

    त्योरियाँ दिखाई

    लेकिन

    पूर्ण के जंगल में

    कृपा की झड़ी लगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सद का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 409)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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