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कविताएँ पढ़ते हुए

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निकोलाय ज़बोलोत्स्की

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निकोलाय ज़बोलोत्स्की

कविताएँ पढ़ते हुए

निकोलाय ज़बोलोत्स्की

और अधिकनिकोलाय ज़बोलोत्स्की

     

    लुभावना, अनोखा और कितनी बारीकियाँ लिए है यह दृश्य
    कविताएँ कविताओं की तरह लग ही नहीं रही हैं।
    पूरी महारत प्राप्त हो गई है जैसे कवि को
    शिशु और झींगुर के जैसी अस्पष्ट बोली को समझने में।

    कसी हुई वाणी की अर्थहीनता में
    छिपा है सुज्ञात परिष्कार।
    लेकिन ज़िंदगी है क्या मनुष्य के सपनों का
    हनन कर डालना मनोरंजन की ख़ातिर?

    संभव है क्या रूसी भाषा को
    बदल डालना सोनचिड़िया की चहक में
    इसलिए कि अर्थ का जीवंत आधार
    ध्वनित ही न हो सके उसके माध्यम से?

    नहीं! कविता खड़ी करती है बाधाएँ
    हमारी मनगढ़ंत कहानियों के सामने
    इसलिए कि वह उनके लिए नहीं है
    जादूगर का टोप पहनते हैं जो प्रहसन में भाग लेते हुए।

    वह जो जीता है सच्ची ज़िंदगी,
    जिसका बचपन से लगाव रहा है कविता से
    विवेकसंपन्न जीवन-स्रष्टा रूसी भाषा में
    उसका बना रहता है विश्वास सदा के लिए।

           
    स्रोत :
    • पुस्तक : नियति की अज्ञात इच्छाएँ (पृष्ठ 142)
    • रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
    • प्रकाशन : प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
    • संस्करण : 2016

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