Font by Mehr Nastaliq Web

सोवियत रूस

soviyat roos

सर्गेई येसेनिन

अन्य

अन्य

सर्गेई येसेनिन

सोवियत रूस

सर्गेई येसेनिन

और अधिकसर्गेई येसेनिन

    गुज़र गया तूफ़ान। बचे हैं हम थोड़े-से

    जो दे रहे पुरानी मैत्री के द्वारों पर दस्तक।

    मैं लौटा हँ अपने इस वीरान गाँव में,

    जहाँ नहीं रख सका पाँव मैं आठ बरस तक।

    किसे पुकारूँ? बोलो, किससे बाँटू अपना

    यह सुख दुखद कि मैं अब भी हूँ जीवित,

    इकपंखी लकड़ी की चिड़िया—वही पवनचक्की भी—

    खड़ी हुई है आँखें मूँदे, मौन, अविचलित।

    जो परिचित थे वे भी मुझको भूल गए हैं,

    कोई भी जानता नहीं अब मुझे यहाँ पर,

    कभी खड़ा था जहाँ पिता का घर, उस स्थल पर

    ढेर राख के, तहें धूल की जमी हुई हैं पथ से उड़कर।

    जीवन फिर भी उमड़ रहा है।

    नए पुराने चेहरों का चारों ओर जमाव,

    किंतु मची है उनमें ऐसी भारी भागम-भाग,

    मिलता कोई नहीं कि जिससे मैं कर लेता अभिवादन,

    मिली कोई आँख कि जिसमें मिलता स्वागत-भाव!

    उठते हैं मेरे दिमाग़ में कितने क्षुब्ध विचार,

    क्या यह मातृभूमि है मेरी?

    क्या बेटा मैं इसका जाया?

    लगभग सबके लिए बना मैं उदासीन-सा एक तीर्थयात्री अनजाना,

    जो जाने किस दूर देश से कैसे यहाँ भटकता आया।

    और यही तो हूँ मैं!

    एक गाँव का वासी

    गाँव ख्यात होगा तो केवल इस कारण—

    यहीं एक बदनाम कलंकी रूसी कवि को

    जन्मा था किसान माता ने किसी अशुभ क्षण!

    किंतु तभी मेरा विवेक स्वर कहता है मेरे अंतर से

    ठहरो, सोचो, तुम्हें क्रोध आया क्यों नाहक?

    यह तो एक नई पीढ़ी की ज्योति-किरण है,

    जिससे हर घर रोशन है बारौनक़!

    तुम मुरझा-से चले, तुम्हारा यौवन बीता,

    अन्य गीत गाते आते हैं युवकों के दल,

    शायद और अधिक दिलचस्प गीत होंगे वे उनके

    क्योंकि गाँव ही नहीं, आज तो उनका है सारा भूमंडल!

    मातृभूमि! मैं कितना हास्यापद बन बैठा,

    फैली इन खोखले कपोलों पर लाली पपड़ी-जैसी,

    ऐसा लगता है, मेरे सहनागरिकों की भाषा मुझसे

    बनी अजनबी और बन गया मैं स्वदेश में ही परदेशी।

    मैंने देखा :

    रविवारीय वेशभूषा में जमा हुए सब गाँव-निवासी

    सामने जिला दफ़्तर के, मानो हो वह गिरजाघर,

    और एक अनपढ़, अनगढ़ भाषा में वे बहस कर रहे,

    अपने जीवन-प्रश्नों पर।

    शाम हो चली। सूर्य डूबता,

    फैल गया है रंग सुनहरा इन मटियाले से खेतों पर,

    ऊँचे पेड़ सफ़ेदों के हैं खड़े किनारे खड्ड खाइयों के, मानो

    वे हों नंगे पाँव, या कि बछड़े हों खड़े द्वार के बाहर।

    अधसोए चेहरे वाला वह लँगड़ा वीर जवान लाल सेना का

    माथे पर झुर्रियाँ चढ़ा याद करता-सा बातें बीती,

    सुना रहा था गर्व भाव से बुद्योनी की कुछ गाथाएँ

    कैसे पेरेकोप भूमि उन लाल सैनिकों ने थी जीती।

    जो बुर्जुआ भागकर पहुँचे क्रीमिया क्षेत्र में

    उनको हमने ख़ूब छकाया युद्धों के वारे-न्यारे में,

    सुनते रहे कान लंबी-लंबी शाखाओं के फैलाए मेपल के तरु,

    साँस रोककर कृषक नारियाँ खड़ी रही अध-अँधियारे में।

    युवा कृषक वे, और युवा कम्यूनिस्ट लीग के सदस्यगण,

    उतर पहाड़ी से घाटी में वाद्यमंडली की धुन पर

    गाते हैं देम्यान बेदनी के अनुप्रेरक गीत क्रांति के,

    भरते अपने हर्षनाद की गूँजों से घाटी का अंतर।

    आह, भूमि यह कितनी प्यारी!

    क्यों कविता में मैंने कहा कि हर पल

    साथ-साथ था मैं जनता के?

    यहाँ शायद आवश्यकता मेरी कविता की

    और शायद मेरी ही है यहाँ आजकल।

    फिर क्या हो?

    सदय क्षमा कर देना मेरी मातृभूमि, ओ!

    ख़ुश हूँ कि तुम्हारी कुछ सेवा मैं कर पाया,

    यद्यपि मेरे गीत नहीं गाए जाते हैं आज यहाँ पर,

    फिर भी मैं हूँ सुखी कि मैंने मातृभूमि के दुर्दिन में उनको था गाया।

    जो भी जैसा है, वैसा स्वीकार मुझे है

    पहले की ही तरह लीक पर चल सकता हूँ मैं जीवन-भर,

    तन-मन-धन सबकुछ वारूँगा मैं अक्तूबर और मई पर

    अपनी प्रिय बाँसुरी छोड़कर सब कुछ कर दूँगा न्यौछावर।

    इसे किसी को मैं समर्पित कर पाऊँगा,

    चाहे माँ हो या पत्नी हो, या हो कोई मीत,

    एकमात्र मुझको वह अपना स्वर देती है

    गाती है वह मेरी धुन पर कोमल-मनहर गीत।

    नवागतो! तुम फूलो-फलो सदा दिन-दूने रात-चौगुने

    मुझसे भिन्न तुम्हारा जीवन, मुझसे भिन्न तुम्हारा स्वर

    आज बढूँगा मैं अनजानी-सी मंज़िल की ओर अकेला,

    शांत हो गया आज सदा को यह मेरा विद्रोही अंतर।

    पर जिस दिन भी, इस सारे भूमंडल में

    हो जाएगी जन-जन की शत्रुता तिरोहित,

    मिट जाएँगे क्लेश, शोक, सारे आडम्बर,

    तब मेरा कवि कर देगा ग़ौरव से मंडित

    दुनिया के इस छठवें हिस्से को जिसका है नाम 'रूस' छोटा-सा।

    1. बुद्योनी: गृहयुद्ध काल में लाल सेना का एक जनरल।

    2. पेरेकोप : क्रीमिया को मुख्य भूमि से जोड़ने वाली पट्टी।

    3. अक्तूबर और मई। अक्तूबर से कवि का मतलब है 1917 की समाजवादी अक्तूबर क्रांति और

    मई से वह 1 मई के पावन दिन का स्मरण करा रहा है जिस दिन सारी दुनिया में मज़दूर अपने भाई-चारे का प्रदर्शन करते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 115)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : सर्गेई येसेनिन
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY