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पतझर

patjhar

निकोलाय ज़बोलोत्स्की

अन्य

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और अधिकनिकोलाय ज़बोलोत्स्की

    जब दिन जाता बीत, और जब स्वयं प्रकृति भी

    नहीं चाहती है उजियाला,

    पतझर के विशाल परकोटे

    खुली हवा में लगने लगते सुघर घरों-से।

    जिनमें बसते बाज़, बसेरा लेते कौए,

    और प्रेत-से ऊपर मँडराते हैं बादल।

    निचुड़ चुका है सब रस पतझर के पत्तों का

    सारी धरती पटी पड़ी है। दूर कहीं पर

    रँभा रहा है कोई एक बड़ा चौपाया

    कुहरे-ढँके गाँव को जाता मंथर गति से।

    बैल, बैल! क्या, क्या अब तुम राजा नहीं रहे हो?

    मेपल के पत्ते पुखराज सदृश लगते हैं।

    पतझर की आत्मा, मुझको क़लम उठाने का बल दो तुम!

    हीरा है समीर की संरचना में कोई।

    बैल मोड़ पर सहसा अंतर्धान हो गया,

    और सूर्य का पिंड लटकता है धरती पर

    कुहरे में लिपटे गोले-सा।

    और धरा की कोर झलकती लाल रक्त-सी।

    पलकों में से अपनी गोल आँख मटकाता,

    एक बड़ा पक्षी उड़ता आता है नीचे।

    उसकी गति में मानव का अनुभव होता है

    कम-से-कम, वह छिपा हुआ है

    दो चौड़े पंखों के बीच बीजवत।

    एक भृंग ने खोल दिया है पत्तों में अपना नन्हा घर।

    पतझर का स्थापत्य। व्यवस्था जिसके भीतर

    अंतरिक्ष की, कुंज-नदी की,

    परिपाटी पशुओं की, जन की।

    उड़ते हुए हवा में छल्ले

    और पत्तियों के वे टूसे, और उजाला उसका न्यारा—

    उसकी ये निशानियाँ हम पसंद करते हैं।

    एक भृंग ने खोल दिया है पत्तों में अपना नन्हा घर

    झाँक रहा है बाहर अपने नन्हे-नन्हे सींग निकाले,

    तरह-तरह की जड़ें खोदकर

    ढेर लगाता है वह उनका।

    अब वह अपना सींग बजाता

    फिर ओझल होता है छोटी-सी मूरत-सा।

    लो फिर चलने लगी हवा। जो कुछ निर्मल था,

    विस्तृत, चमकदार या सूखा

    अब सबकुछ भदरंग हो गया, अप्रिय, धुँधला,

    और अदर्शन। धुआँ हाँकती आती आँधी

    चक्रवात से पत्तों की ढेरी बिखराती

    और धरातल को चूरे की तरह उड़ाती।

    और प्रकृति सारी अब हिम होने लगती है

    मेपल का पत्ता ताँबे-सा

    बज उठता है नन्ही टहनी से टकराकर।

    और जान लें हम : यह है संकेत प्रकृति का

    जो वह हमें दे रही है अब

    एक नई ऋतु के प्रवेश पर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 123)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

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