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पहलगाम-वन की चीड़ से

pahalgam wan ki cheeD se

अनुवाद : अर्जुन देव ‘मजबूर’

मिर्ज़ा आरिफ़

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मिर्ज़ा आरिफ़

पहलगाम-वन की चीड़ से

मिर्ज़ा आरिफ़

और अधिकमिर्ज़ा आरिफ़

    पूछा चीड़ से मैंने, बीता समय कितना

    खड़े एक टाँग पर तुमको

    देखती दिन रात समय की बाढ़

    हैं उलझीं तेरी अलकें, किस कारण

    ज़ाया हो गया है शमशाद-सा क़द तेरा क्यों?

    आपदाओं ने तुझे खोखला नहीं कर दिया है!

    चीड़ बोली—चल मेरे बेटे, वक्त के साथ चल

    वक़्त बँधता नहीं, समय के दौर में संसार में

    अथाह सागर है यह, इसमें शोर, अंत

    है कभी माधुर्य देता है, कभी विष

    कभी होते नहीं हैं दंत विकृत इसके

    शिकन माथे पे इसके कभी देखी नहीं

    ज़माने के बदलते रंग-ढंग सारे

    वही रहता समय, बदलता है तो, मानव ही

    कभी पीछे नहीं हटता, बढ़ने में इसे संकोच होता

    नदी वह देख! जो चलती है दिन रात

    यह भिड़ती है किनारों, शिलाओं और मेड़ों से

    कभी चमचम चमकता इसका आसमानी रंग

    कभी इस द्वेषपूरित सीने का होता है रंग गँदला

    पटक कर पत्थरों, पेड़ों, शिलाओं को

    पशु, मानव, रीछ हो, जिस पर चले ज़ोर...

    उसे लुढ़का, पटकता पत्थरों से, आगे बढ़ता

    हवा प्रातः की मस्ती का बजा साज़

    है देती रस वह मानव, पक्षियों को

    इसी लय से प्रभावित गा रहे हैं पेड़-पौधे

    कभी मस्ती में आए तो उठा लेता है तूफ़ाँ

    धूल धरती की उड़ा अंबर के मुख पे मलता है

    गिरा कर देवदारों को, निकल पड़ता है आगे को

    किया क्या सोचने की उसको फ़ुरसत है?

    ये नभ जो तारकों की दीप मालाएँ दिखाता

    प्रकाशित भास्कर को दिन में करता

    वही नभ है छुपाता सारे अवगुण

    हुआ चुप है देख रंग इस ज़माने के

    कभी मातम, कभी युद्धों की तबाही देख

    वही नभ है सुना था शोर जिसने कुछ दिन

    ग़रीबों, बेकसों पिछड़े यतीमों का

    सहायक हम हों, युग की बाग़डोर समझ लें

    हमारा देश है, इस पे राज हो अपना

    इसे ग़ैरों ने रौंदा आज तक है।

    वही गूदड़ है पहने, है वही रस्सी भी काँधे पर

    है ख़ाली हाथ बेचारा, ग़रीबी से परेशाँ है

    उसी ढर्रे पे जीवन चल रहा था, जो कभी, उसे पुरखों का

    वही कपड़े फटे हैं और वही बासी रोटी

    अरे ये लोग जिन्होंने इसे नारे सिखाए हैं

    हैं बैठे मस्त ये कोठियों, बंगलों में

    कहूँ क्या जब से यह मोटरों के लिए सड़क बनी है

    मैं कैसे बोल सुनता हूँ, देखना पड़ता है क्या-क्या

    नए यह दिन कि जब आता था जोगी

    लँगोटी पहनकर, जल-पात्र सोटी थी हाथों में

    वह संन्यासी कभी आके कुछ ढूँढ़ता हो जैसे

    सचाई ज़िन्दगी की, वह सनातन सत्य

    वह जग-त्यागी रखता गुप्त था अपने को

    उसी शिव को खोजता, जिसको कहते हैं अमरनाथ

    कहूँ कितना, कहलाओ, मेरी नज़रों ने क्या देखा

    मेरी छाती फटी जाती, नहीं छेड़ो मुझे अब

    हैं देखे राज़ कितने, तदबीर कितने, सहे है तीर कितने।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 49)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : मिर्ज़ा आरिफ़
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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