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अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी

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और अधिकप्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी

    बेटे,

    एक साल का हो जा,

    सिखा दूंगा संसार का सारा रहस्य

    दिखा दूँगा

    मेरी आँख की पुतली में ईश्वर।

    कितना असहाय,

    कितना चंचल

    शायद तू किसी भी शिशु की तरह

    नहीं कोई अविकल

    तू एक स्वतंत्र सत्ता

    कोई नहीं तेरी तरह,

    तू है अनन्य

    तेरा पितृत्व पाकर

    मैं क्या पाऊँगा अमरत्व?

    या होऊँगा धन्य ?

    तू मेरा अविछिन्न-आत्मा-पुरुष का

    सच है एक फल?

    या मेरे जीवन रेगिस्तान में है

    तू घोर वर्षा जल ?

    तू कौन, जानना निरर्थक

    मैं समझ गया कि तू स्वाधीन है

    मेरे हाथ की चौड़ाई क्रमशः छोटी पड़ेगी

    करने तेरा आत्मा-बंधन।

    बेटे, तुझे तीन बरस होने दे

    तू बनेगा श्रेष्ठ मिथ्यावादी

    मामूली सत्य का मोल चुकाने में

    मैं रात-दिन मिहनत कर रहा

    फिर भी मेरे सपनों का खेत सूना है।

    कौन समझेगा तेरी भूख-प्यास

    तू ही व्यवहृत होगा मशीन के पुरज़े का

    पाँव तले तेरे माटी,

    सिर पर आकाश

    मैं छोड़ नहीं पाऊँगा

    मेरे पीछे घर की डीह

    ज़मीं-जमा-जायदाद

    तू जीना अपनी मर्ज़ी से

    तू ख़ुद ध्यान रखना अपने हृदय स्पंदन का।

    बेटे पाँच बरस का हो जा

    दिखा दूँगा पृथ्वी के रंग

    काला हो तेरा

    सफ़ेद हो व्यंग करना

    अपना रक्षक बन फिरना गली-कूचे

    लेमन चूस खाना

    बेर खाना

    लट्टू, पतंग,

    गिल्ली-डंडा

    टिन का डिब्बा

    सिगरेट के खोल

    इनके साथ

    तू जीवन का खेल खेलना।

    बेटे, दस बरस का हो जा तू

    नई जूतों की जोड़ी ख़रीद दूँगा

    पहनकर गति क्षिप्र होगी

    टूटेगी क्लांत नीरवता

    तू स्वयं बनेगा अपना गुरु

    सहेज रखना अपने बही-बस्तानी

    तू बनाएगा अक्षरों की राजधानी

    जचा-जचाकर शब्दों के पत्थर

    मैं क़लम ख़रीद दूँगा

    काग़ज ख़रीद दूँगा

    अब की दस वर्ष पूरे होने पर।

    बेटे, तू मन मरज़ी घूमना

    रंग-बिरंगे जीवन में

    किसी की परवाह नहीं

    किसी से डरना

    मायामृग की तलाश करना।

    फुटबॉल खेलते-खेलते

    कीचड़ में तू सन जाएगा

    घुटने भी फूटेंगे

    बार-बार गिरेगा नीचे

    फिर भी किक मार-मार

    खेलते जाना जीवन को

    गर्वीले खिलाड़ी की तरह

    याद रखना, बेटे

    जीवन है खेल, और खेल ही जीवन।

    बेटे तेरे पंद्रह का हो जाने पर

    हिला दूँगा अपने हाथ अँधेरे में

    आख़री बार विदा

    जंगल में बना रह

    तू तलाशना अपना लक्ष्य

    तेरी शिक्षा

    तेरी पत्नी

    तेरा घर

    तेरा जनसमूह

    बेटे, तुझे धकेल दूँगा

    अँधेरे के गर्भ में

    तू निकालना अपना आलोक

    अज्ञान से खोजना अपना ज्ञान

    व्याधि से औषध

    बेटे पंद्रह पूरे होने पर तुझे

    कानों कान कह दूँगा

    मेरी जीवन कविता का सर्वश्रेष्ठ पद

    फिर तू मिल जाना संसार में

    पसीना बहा

    आँचल फैलाकर

    ख़ून देकर तू माँगना

    यंत्रणा या जीवन से मुक्ति

    इतना समय बिताकर सीखा है मैंने यही

    जीने में कोई तर्क नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 218)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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