मुलाक़ात होने पर बताऊँगा

mulaqat hone par bataunga

प्रसन्न कुमार पाटशाणी

प्रसन्न कुमार पाटशाणी

मुलाक़ात होने पर बताऊँगा

प्रसन्न कुमार पाटशाणी

ख़ून मेरा तुम्हारे माथे का

सिंदूर नहीं हो सकता, अपने पैरों में

बना लो उससे महावर की लकीरें,

काँटा बनकर चुभ जाए मेरे पैरों में

तुम्हारा दर्द, साँसें तुम्हारी

हो जाएँ बाँसुरी की तान।

कभी मिलो तो बताऊँ,

पागल तितली किस तरह

ढूँढ़ती है नदी का किनारा, आँसू भी

समुद्र बन जाता है, यादें बनती हैं असंख्य लहरें,

पंखुड़ियाँ कैसे खुलती हैं फूलों की

मुलाक़ात होने पर बताऊँगा ये बातें

दर्द की रागिनी लिए अंधा

किस तरह गाता है अपनी प्रिया के लिए गीत।

अंधे का अँधेरा क्या है?

गाना ख़त्म होते ही अँधेरा घेर लेता है

जिस तरह तुम्हारे आने के बारे में

सुबह लिख जाती है ओस की बूंदों से।

हवा से भी पलता है तुम्हारा स्पर्श

पानी से भी तरल है तुम्हारा अभिमान

तुम एक रक्तिम शाम हो

सूरज से भी चमकीली

चाँद से भी मुलायम

तुम्हारे ललाट पर बादल उतर आता है

बादल मैं हो सकूँ

तो सही मेरी सिर्फ़ यही इच्छा है

कुमकुम बनकर,

बादल मैं हो सकूँ तो सही

मेरी सिर्फ़ यही इच्छा है

तुम्हारे पैर का घुँघरू बनकर बजता रहूँ।

कभी-कभी दिखता है

जल रहा है मेरा शव श्मशान में

तुम चुपचाप खड़ी बूँद-बूँद आँसू की

फूलमाला फेंक रही हो चिता में

अद्भुत रंग का धुआँ ऊपर उठ रहा है

बरगद को पार कर सुनसान आसमान की ओर

बंद हो चली हैं तम्हारे घोंघे की आँखें

पक्षी चुपचाप तुम्हें निहार रहा है।

जिधर देखो

रंग बिखरे हुए हैं और उनमें तुम्हारी तस्वीर

जिधर भी सुनो

पक्षियों का कलरव और उसमें तुम्हारा स्वर

अस्पष्ट होने लगती है आयु-रेखा

जब हवा कहती है कानों में—

'अब वह नहीं आएगी

गाते रहो यों ही यादों की ग़ज़लें।'

तितली के मुलायम पंख की तरह

तुम्हारा बदन, तुम अँधेरे को छू लो

मैं तुम्हें छू लूँगा,

दर्द से मुरझाया तुम्हारा

हृदय, तुम दहन की रात बन जाओ,

मैं सपना बन जाऊँगा।

कौन कहता है मृत्यु चिर अँधेरा है!

मेरे लिए मृत्यु चिर सहचर है,

दूरी बढ़ने से ही दृढ़ होती है बंधन की डोर।

ठोड़ी तुम्हारी एक लाल मछली है

मानो वह मेरे होंठो के काँटे पर झूल रही है,

तुम मानो या मानो

अंधों का राजा बनकर

विरह-सिंहासन पर मैं यहाँ बैठा हूँ।

कभी मिलो तो बताऊँ

यहाँ से कैसा दिखता है दूर का जंगल और

गोधूली का रास्ता,

मुलाक़ात होने पर बताऊँगा,

पहाड़ी झरने की आवाज़ कैसी होती है

और फूँकने से क्यों नहीं बुझती विवर्ण बाती।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1985 (पृष्ठ 47)
  • संपादक : बालस्वरूप राही
  • रचनाकार : प्रसन्न कुमार पाटशाणी
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 1990
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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