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ओ-ओ आ-आ का विदा-गीत

o o aa aa ka wida geet

ज्ञानेंद्रपति

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ज्ञानेंद्रपति

ओ-ओ आ-आ का विदा-गीत

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    ओ-ओ आ-आ

    इकला वह पंछी रहा गा

    हवाई द्वीप के अपने दलदली ठिकाने पर

    मिथुन-गीत

    वर्षों से पुकारता प्रिया को

    कहाँ है उसकी मादा

    जननी अजन्मे शावकों की

    उड़ गई अनस्तित्व के आकाश में

    खोंसकर अपने रंगीन पर

    नववर्ष के उत्सवी टोपों में

    पिछले किसी साल

    छोड़ उसे इकला

    ओ-आ आ-आ का अनुत्तरित मिथुन-गीत

    हवाई द्वीप के उसके दलदली ठिकाने पर

    एक प्रजाति का विदा-गीत है

    जिसे सुनो चेतो

    बहसों और बुझौवलों के बीच

    कि लाखों वर्ष पूर्व कैसे लुप्त हुए डायनासोर

    पृथ्वीजेता भीमकाय डायनासोर

    किसी विशाल धूमकेतु से टकराई थी पृथ्वी

    कि विराट् उल्का-प्रस्तर बरसा था पृथ्वी पर

    देखो, यहाँ से वहाँ तक यह क्रेटर, इस भूरे पत्थर में इरीडियम-स्तर

    यह यहाँ माइक्रोस्कोप से, वह वहाँ टेलेस्कोप में

    अरे! देखो स्टेथेस्कोप से

    सुनो छाती के घर्घर में अंतःकरण की आवाज़

    असंख्य जीव-जंतुओं से भरी धरती के लिए

    विशालतम धूमकेतु से, विराटतम उत्का-प्रस्तर से भी

    अधिक दुस्सह, अधिक दुर्दांत

    हो रहा आदमी

    हर दिन लुप्त ही रहीं शताधिक प्रजातियाँ

    धरती की अनन्य जीव-रचनाएँ

    आदमी के सर्वस्व-संहारी आत्म-विस्तार में

    ओ-ओ आ-आ के वंशी-स्वर को

    हाथ हिला विदा दो

    अभी जबकि म्यूजियम में चकित

    बादल की तरह मुलायम उस राजसी चोंगे के सामने से गुज़र रहे हैं

    तुम्हारे बच्चे

    जिसके दामन में सिले अस्सी हज़ार पंछियों के उधड़े पंख हैं

    और छीजते जंगलों में यहाँ-वहाँ लटके हुए

    शहद के छत्ते वृक्ष के तनाकार—

    चिड़ियों की पोली हड्डियों की तरह हवा-हलके, मधुभार-बोझिल—

    मधुखौकी चिड़ियों की लंबी कठिन चोंचों के बिना

    रंध्र-रंध्र में उदास है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 101)
    • संपादक : कुमार मंगलम
    • रचनाकार : ज्ञानेंद्रपति
    • प्रकाशन : राजकमल पैपरबैक्स
    • संस्करण : 2022

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