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ओ मेरे विस्मय के पुंज

o mere wismay ke punj

मीनाक्षी मिश्र

अन्य

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मीनाक्षी मिश्र

ओ मेरे विस्मय के पुंज

मीनाक्षी मिश्र

और अधिकमीनाक्षी मिश्र

    घने कुहासे के बाद निकले सूर्य की तरह हो तुम

    टँकी मिलती है उम्मीद की एक लकीर

    जिसके चेहरे पर हमेशा

    मेरे विस्मय के पुंज!

    गिलहरियाँ तुम्हारे कंधे पर बैठने से

    कतराती नहीं हैं कभी

    चिंताओं का उपनिवेश भी तो

    कभी नहीं रहा तुम्हारा मन,

    वह तो कल्पनाओं का उर्वर प्रदेश है कोई

    केवल लफ़्फ़ाज़ी नहीं है जिसमें

    कितना औषधीय रहा तुम्हारा संस्पर्श

    उस जर्जर मकान के लिए

    आज भी मुस्कुरा रहा है जो

    मेड़ों के बीचोंबीच खड़ा हुआ

    आश्वस्ति की कितनी मिठास घुली रहती है

    गुड़धानी-सी तुम्हारी बातों में

    मात्र एक पुष्प का कुम्हला जाना ही

    ठंडी तासीर से भर देता है तुमको

    इतने बर्बर समय में

    कितने मायूस हो जाते

    हत्या का कोई समाचार सुनते ही

    तुम अब भी...

    तिरस्कार की भाषा से अब भी

    कितने अनजान हो तुम!

    जानते हो न!

    तुम मेरे हृदय का वह आलाप हो

    जिसके लिए मुझे कभी ज़रूरत नहीं पड़ी

    किसी अभ्यास की

    देखना एक दिन

    प्रेम के अनुयायियों के लिए

    युगांतरकारी सिद्ध होगा

    मेरी ओर से लिखा गया

    तुम्हारा यह संस्मरण!

    स्रोत :
    • रचनाकार : मीनाक्षी मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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