नि:शस्त्र सेनानी

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माखनलाल चतुर्वेदी

माखनलाल चतुर्वेदी

नि:शस्त्र सेनानी

माखनलाल चतुर्वेदी

'सुजन, ये कौन खड़े हैं?' बंधु!

नाम ही है इनका बेनाम,

'कौन-सा करते हैं ये काम?'

काम ही है बस इनका काम।

'बहन-भाई', हाँ कल ही सुना,

अहिंसा, आत्मिक बल का नाम,

'पिता!' सुनते हैं श्री विश्वेश,

'जननि?' श्री प्रकृति सुकृति सुखधाम।

हिलोरें लेता भीषण सिंधु

पोत पर नाविक है तैयार,

घूमती जाती है पतवार,

काटती जाती पारावार।

'पुत्र-पुत्री हैं?' जीवित जोश,

और सब कुछ सहने की शक्ति;

'सिद्धि'-पद-पद्मों में स्वातंत्र्य—

सुधा-धारा बहने की शक्ति।

'हानि?' यह गिनो हानि या लाभ,

नहीं भाती कहने की शक्ति,

'प्राप्ति?'—जगतीतल का अमरत्व,

खड़े जीवित रहने की शक्ति।

विश्व चक्कर खाता है

और सूर्य करने जाता विश्राम,

मचाता भावों का भू-कंप,

उठाता बाँहें, करता काम।

'देह?'—प्रिय यहाँ कहाँ परवाह

टँगे शूली पर चर्मक्षेत्र,

'गेह?'—छोटा-सा हो तो कहूँ

विश्व का प्यारा धर्मक्षेत्र!

'शोक?'—वह दुखियों की

आवाज़ कँपा देती है मर्मक्षेत्र,

'हर्ष भी पाते हैं ये कभी?'—

तभी जब पाते कर्मक्षेत्र।

फिसलते काल-करों से शस्त्र,

कराली कर लेती मुँह बंद;

पधारे ये प्यारे पद-पद्म,

सलोनी वायु हुई स्वच्छंद!

'क्लेश?'—यह निष्कर्मों का साथ

कभी पहुँचा देता है क्लेश;

लेश भी कभी की परवाह

जानते इसे स्वयम् सर्वेश।

'देश?'—यह प्रियतम भारत देश,

सदा पशु-बल से जो बेहाल,

'वेश?'—यदि वृंदावन में रहे

कहा जावे प्यारा गोपाल!

द्रौपदी भारत माँ का चीर,

बढ़ाने दौड़े यह महराज,

मान लें, तो पहनाने लगूँ,

मोर-पंखों का प्यारा ताज!

उधर वे दुःशासन के बंधु,

युद्ध-भिक्षा की झोली हाथ;

इधर ये धर्म-बंधु, नय-सिंधु,

शस्त्र लो, कहते हैं—'दो साथ।'

लपकती हैं लाखों तलवार,

मचा डालेंगी हाहाकार,

मारने-मरने की मनुहार,

खड़े हैं बलि-पशु सब तैयार।

किंतु क्या कहता है आकाश?

हृदय! हुलसो सुन यह गुंजार,

'पलट जाये चाहे संसार,

लूँगा इन हाथों हथियार।'

'जाति'?—वह मज़दूरों की जाति,

'मार्ग?' यह काँटोंवाला सत्य;

'रंग?'—श्रम करते जो रह जाय,

देख लो दुनिया भर के भृत्य।

'कला?'—दुखियों की सुनकर तान,

नृत्य का रंग-स्थल हो धूल;

'टेक?'—अन्यायों का प्रतिकार,

चढ़ाकर अपना जीवन-फूल।

'क्रांतिकर होंगे इनके भाव?'

विश्व में इसे जानता कौन?

'कौन-सी कठिनाई है?'—यही,

बोलते हैं ये भाषा मौन!

'प्यार?'—उन हथकड़ियों से और

कृष्ण के जन्म-स्थल से प्यार!

'हार?'—कंधों पर चुभती हुई

अनोखी जंज़ीरें हैं हार!

'भार?'—कुछ नहीं रहा अब शेष,

अखिल जगतीतल का उद्धार!

'द्वार?' उस बड़े भवन का द्वार,

विश्व की परम मुक्ति का द्वार!

पूज्यतम कर्म-भूमि स्वच्छंद,

मची है डट पड़ने की धूम;

दहलता नभ मंडल ब्रह्मांड,

मुक्ति के फट पड़ने की धूम!

स्रोत :
  • पुस्तक : स्वतंत्रता पुकारती (पृष्ठ 143)
  • संपादक : नंदकिशोर नवल
  • रचनाकार : माखनलाल चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2006

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