मैं हर चीज़ को
नमक की तरह गलते देखता हूँ
बारिश में सूखता है गला
उस हथेली को खोजता हूँ जो गरम है
नींद का पता एक जर्जर रात है
स्वप्न किसी सघन वन का अँधेरा
जिन लोगों ने मुझे घेर लिया है
वे भरोसे के क़ाबिल नहीं
हर बार उनकी भाषा
संदेह की भाषा लगती है
एक ही झूठ को दोहरा रहा है बार-बार
छल की आँखों में बेहिसाब करुणा है
जिसे रोते देखता हूँ सबके सामने
उस पर भरोसा नहीं होता अब
आख़िर कोई इतनी मृत्यु और
इतनी आह का बोझ दिल पर रखकर
ज़िंदा कैसे रह सकता है!
- रचनाकार : शंकरानंद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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