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मुँह-अँधेरे ट्रेन

munh andhere tren

बोरीस पस्तेरनाक

अन्य

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बोरीस पस्तेरनाक

मुँह-अँधेरे ट्रेन

बोरीस पस्तेरनाक

और अधिकबोरीस पस्तेरनाक

    मैं मास्को के नज़दीक रहता था उन सर्दियों में

    लेकिन जब ठंड बढ़ती, आँधी आती या बर्फ़ पड़ती

    मैं, ज़रूरत पड़ने पर, हमेशा

    काम से शहर जाता था।

    मैं मुँह-अँधेरे

    घर से निकल पड़ा

    और जंगल के अँधेरे में

    अपने क़दमों की चर्रमर्र बिखरा रहा था चारों ओर।

    बंजर में नभ्रा दूब के फूल उठ खड़े हुए

    मेरा अभिवादन करने को चौराहे पर

    जनवरी के ठंडे सूराख़ से निकलकर

    उभर रहे थे ये गरबीले नक्षत्र।

    बहुधा पिछवाड़े

    कभी डाकगाड़ी कभी ट्रेन नंबर चालीस

    कोशिश करती तेज़ी से मुझसे आगे निकलने की

    मैं भागता छह बजकर बीस की गाड़ी पकड़ने को।

    अचानक रौशनी की सूझ-भरी सलवटें

    संकेतों की तरह एक व्यूह बनाकर इकट्ठी हुईं

    अपनी भव्यता लिए सर्चलाइट

    सड़क के मुहाने पर पड़ी।

    ट्रेन की उत्तप्त निकटता में मैंने स्वयं को

    हवाले कर दिया

    अपनी जन्मजात दुर्बलता के, जो मुझे

    मेरी माँ के दूध से मिला था।

    गुपचुप पहचाना

    वर्षों के युद्ध और उथल-पुथल से

    गुज़रे

    रूस के अद्वितीय चेहरे को

    इसके पहले कि मैं विभोर हो जाऊँ मैंने ख़ुद को

    सम्हाला और चारों ओर श्रद्धा-भरी नज़रों से देखा।

    यहाँ-वहाँ स्त्रियाँ थीं, बस्ती के लोग थे,

    छात्र थे और मिस्त्री थे।

    उनके चेहरों पर ग़रीबी से जन्मी

    ग़ुलामी की छाप थी कोई भी।

    और वे ख़बरों और असुविधाओं को

    शहंशाहों की तरह बरदाश्त कर रहे थे।

    जिस तरह लोग घोड़ा-गाड़ियों में बैठते हैं,

    उस तरह अलग-अलग दिशाओं, मुद्राओं में

    बैठे हुए बच्चे और किशोर

    पढ़ने में मगन थे।

    मास्को ने हमारा स्वागत किया अँधेरे में

    जो जल्द ही चाँदी में बदल गया

    और दुहरी रोशनी को छोड़ हम

    बाहर आए मेट्रो स्टेशन के।

    लड़के रेलिंगों से चिपके हुए थे

    और उनके नज़दीक से गुज़रते हुए लगा

    छाल-झरबेरी साबुन और शहद की रोटियों की

    महक उड़ रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 52)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : बोरीस पस्तेरनाक
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

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