मुलाक़ातें

mulaqaten

आलोकधन्वा

आलोकधन्वा

मुलाक़ातें

आलोकधन्वा

अचानक तुम जाओ

इतनी रेलें चलती हैं

भारत में

कभी

कहीं से भी सकती हो

मेरे पास

कुछ दिन रहना इस घर में

जो उतना ही तुम्हारा भी है

तुम्हें देखने की प्यास है गहरी

तुम्हें सुनने की

कुछ दिन रहना

जैसे तुम गई नहीं कहीं

मेरे पास समय कम

होता जा रहा है

मेरी प्यारी दोस्त

घनी आबादी का देश मेरा

कितनी औरतें लौटती हैं

शाम होते ही

अपने-अपने घर

कई बार सचमुच लगता है

तुम उनमें ही कहीं

रही हो

वही दुबली देह

बारीक़ चारख़ाने की

सूती साड़ी

कंधे से झूलता

झालर वाला झोला

और पैरों में चप्पलें

मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले

भाग-दौड़ में भरोसे के लायक़

तुम्हें भी अपने काम में

ज़्यादा मन लगेगा

मुझसे फिर एक बार मिलकर

लौटने पर

दु:ख-सुख तो

आते-जाते रहेंगे

सब कुछ पार्थिव है यहाँ

लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं

पार्थिव

इनकी ताज़गी

रहेगी यहाँ

हवा में!

इनसे बनती हैं नई जगहें

एक बार और मिलने के बाद भी

एक बार और मिलने की इच्छा

पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

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आलोकधन्वा

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स्रोत :
  • रचनाकार : आलोकधन्वा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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