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मुक्त-जीवी

mukt jiwi

अनुवाद : हिरण्मय

वि. कृ. गोकाक

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वि. कृ. गोकाक

मुक्त-जीवी

वि. कृ. गोकाक

और अधिकवि. कृ. गोकाक

    ये हैं मुक्त-जीवी,

    घन पर विचर कर—

    जो करते हैं पालन त्रिजग का रात-दिन,

    इनकी प्रीति, इनकी

    करुणा वह ज्योति है

    जिसका करती है धरा सदा अनुकरण।

    विश्व-हृदय में चमकते

    ये ही ज्योति-देही हैं

    छूने पर जिनके स्नायु सब भर आते हैं।

    सर्व कुल लोक की

    शांति कांति के स्वरूप

    आज्ञा के बिना जिनकी वरुण-वायु नहीं चल पाते

    सब तेज़ के आगार,

    सब ओज के पारावार,

    सब तप और पुण्य की हैं खान,

    सृष्टि स्थिति लय के

    ये ही हैं ताल-लय,

    तीन लोक के मानी हैं अति महान्।

    इनकी वाणी जो पावे

    वह रसना बोल पाएगी,

    देखेंगी नहीं जो आँखें इन्हें वे मुक्ति पाएँगी।

    वे भुजाएँ नहीं बने बलवान

    किया नहीं जिन्होंने इनका आलिंगन,

    उनको मुक्ति कहाँ जिन पर होते ये प्रसन्न।

    जीवन-मंदिर में हैं

    ये चिर सनातन,

    जीवन के प्रथम ज्ञानी और अति पुरातन।

    युग-युग के बाद

    हुआ इनका अवतार

    संक्रांति-पुरुष हैं नित्य विनूतन।

    पवन पर चलते हैं,

    सागर पर थिरकते हैं,

    आग पर खड़े हो जलते हैं,

    मोक्ष-सुखदायिनी को

    जीवन-नारायणी को

    शेष-शग्या ये ही बिछाते हैं

    मानव के हित के लिए

    जग में विचरते हैं,

    फैलाते तथा मोड़ते हैं माया को।

    फूल जो खिले हैं

    फिर करते उन्हें मुकुलित,

    खिलाते हैं खिलने वाली कलियों को।

    जीवन मेरा बन जाए

    इनके ज्ञान से और प्रेम से

    अर्पित हो जीवन पर बन अरविंद,

    मेरा यह काव्य बने

    मंदिर के भक्त-मधुओं को

    अर्पित अति मधुर मकरंद

    यह जग रहे इनके

    ज्ञान से और प्रकाश से

    मुक्ति-मंदिर के पथ पर हो धर्मशाला

    भावी मनु-कुल को

    मुनि-कुल बनाने वाली

    हो जाए यह अति मानव कर्मशाला।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 169)
    • रचनाकार : वि. कृ. गोकाक
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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