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अँधेरे में देखो

andhere mein dekho

अनुवाद : इबोहल सिंह काड़्जम

राजकुमार मधुवीर

अन्य

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राजकुमार मधुवीर

अँधेरे में देखो

राजकुमार मधुवीर

और अधिकराजकुमार मधुवीर

    अँधेरे में देखो

    अकेले बैठकर

    गहरी अँधेरी रात में

    देखो अधिक ग़ौर से

    ज़रूर देखोगे तुम

    बड़ा-सा फूलों का बग़ीचा, होराइज़न तक फैला हुआ

    प्रत्येक रंग के कई फूल देखोगे

    नृत्य करते हुए, थके हुए सिर को हिलाते

    शीतल पवन की लहरों की ताल के अनुकूल

    ज़रूर देखोगे तुम

    यदि तुम हो तो—प्रकृति के पुजारी।

    अँधेरे में देखो

    ज़रूर देखोगे तुम, भागता हुआ मसीह घबड़ाकर

    देखोगे जैसे हारा हुआ सिपाही रणभूमि से भागता है

    देखोगे भागता हुआ मसीह घबड़ाकर

    अपने को बचाने के लिए क्रूसिफ़िकेशन से

    तथा कृष्ण को—मरकर पड़ा हुआ देखोगे

    असंख्य मक्खियों से घिरा

    जैसे, रेलवे प्लेटफॉर्म पर पड़ा रहता है अनाथ भिखारी का शरीर

    ज़रूर देखोगे तुम

    यदि तुम हो तो—एक नास्तिक।

    बहुत ग़ौर से देखो

    उस गहरी अँधेरी रात में

    ज़रूर देखोगे तुम क्षणभर में हज़ारों कारें

    इधर-उधर, इधर-उधर दौड़ती हुई

    और तुम सुनोगे वार्तालाप सभी लोगों का

    हँसते हुए झुंड-झुंड में

    शीशे की तरह परछाईं पड़ी हुई चिकनी सड़क पर, मेट्रोपोलिश की

    हाँ, सही है कि तुम एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा पाओगे

    देखकर उन स्त्रियों को—अर्ध नग्न

    कैबरे में, विजनटिनेस्क होटलों के

    जो नाच रही हैं जॉज के वाद्य यंत्रों के आधार पर

    हाँ, देखोगे तुम और सुनोगे

    यदि तुम उतरा रहे हो—समय की हलचल की लहरों पर।

    मैंने देखा, गहरी अँधेरी रात में

    विध्वस्त, बड़ा-सा एक शहर

    जहाँ किसी भी प्रकार का एक भी जीव हो

    पलस्तर लगी हुई दीवार के हज़ारों टुकड़े देखे मैंने

    ढेरों में पड़े हुए मेरे सामने, स्काईस्क्रैपर से

    जिसका शीश कल ही व्योम नीलिमा तक उठा था

    मैंने देखा आज, सामने धूल में पड़ा हुआ

    विध्वस्त, बड़ा-सा एक शहर।

    मैंने देखे कारख़ाने, मृतकों की तरह साँस रहित

    मैंने देखा न्यायालय, जहाँ एक भी चूड़ा दौड़ता नहीं

    और देखा संसद-भवन, जहाँ एक भी तुमित (कीड़ा) उड़ता नहीं

    खंड-खंड मूर्तियाँ, धूल चाटते भवन

    देखा मैंने सबको, जो सामने फैला हुआ

    व्यापक, रेत का सागर सा

    मेरे सामने फैला हुआ

    व्यापक, रेत का सागर-सा

    देखा सबको, कुछ शेष नहीं

    गहरी अँधेरी रात में

    देखा सबको, कुछ शेष नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक मणिपुरी कविताएँ (पृष्ठ 35)
    • संपादक : देवराज
    • रचनाकार : राजकुमार मधुवीर
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1989

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