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मकड़ी-जाल

makDi jal

प्रयागनारायण त्रिपाठी

अन्य

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और अधिकप्रयागनारायण त्रिपाठी

    मेरे चारों ओर बिछ गया है जो यह रेशमी जाल

    मैंने ही तो उसको मकड़ी बन-बन कर दिन-रात बुना है;

    नए-नए झीने तारों को

    अपने से बाहर फैलाते जाने का रंगीन मोह

    मैंने ही रह-रह कर पाला है

    अगर आज मैं उलझ गया हूँ

    अपने ही आत्मा से निर्मित इन तारों में

    अगर प्रतीक्षा-रक्त-पिपासा-तृप्ति-प्रतीक्षा-रक्त-पिपासा—

    यही हो गया है जीवन-क्रम

    तो अपनी दुर्बलता के इन अभिशापों को

    चुप होकर सहना ही होगा

    और कदाचित्—

    कभी मुक्ति की तृष्णा जागे—

    तो चुन-चुन कर एक-एक उलझे धागे

    अपने को ही सुलझाने होंगे;

    एक-एक कर इनको सबको पीना होगा

    एकमात्र बाहर के इन झंझावातों से

    नहीं कभी भी ये ताने-बाने टूटेंगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तीसरा सप्तक (पृष्ठ 41)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : प्रयागनारायण त्रिपाठी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2013

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