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मैना, बोलती है

maina, bolti hai

ज़ुबैर सैफ़ी

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ज़ुबैर सैफ़ी

मैना, बोलती है

ज़ुबैर सैफ़ी

और अधिकज़ुबैर सैफ़ी

    ज़िंदादारान-ए-शब! मिरा लहू चक्खो,

    मैं साँस लेने के हथकंडों में उलझा पड़ा हूँ,

    बहुत बोलता हूँ,

    ऐसे कि जैसे मुझसे पहले किसी ने कोई लफ़्ज़ बोला ना हो,

    मुँह किसी ने खोला ना हो,

    मैं रात भर जगने की आदत से उकता चुका हूँ,

    फ़क़त सोचता हूँ,

    कि क्या सोचने से पहाड़ों के सीने पर तिल उगने लगेंगे,

    क्या शादाबियों के मौसम में घावों पर भँवरें फिरेंगे,

    फ़क़त सोचने से रोटियाँ आती नहीं है,

    तो सोचता हूँ नौकरी छोड़ दूँ मैं!

    शराब चक्खे महीनों हुए हैं,

    ज़िंदगी गले पड़ी है,

    नाक और कान से बहते लहू में कूची डुबाऊँ

    तो इक तस्वीर बनती है पहले से देखी हुई,

    तस्वीर, जो बहुत बोलती है,

    जब पर खोलती है तो पंखे से टकरा कर ख़ूँ में भीगी हुई,

    कमरे के हर दर से निकलने की बेजा रविश में,

    सर पीटती है,

    तस्वीर बोलती है,

    मैं बोलता हूँ, बहुत बोलता हूँ,

    मुझमें किसी की कोई तस्वीर बोलती है,

    उल्टे सीधे जुमलों को तरतीब देते हुए,

    ज़हन की काली चट्टानों का तन खोलती है,

    मन रगड़ते हुए,

    हाथ पड़ते हुए

    चाक सीने पे बैठी तुम्हीं बोलती हो!

    बहुत बोलती हो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज़ुबैर सैफ़ी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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