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लत्तू पागल और मैं : एक असमाप्त कहानी

lattu pagal aur main ha ek asmapt kahani

राजकुमार केसवानी

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राजकुमार केसवानी

लत्तू पागल और मैं : एक असमाप्त कहानी

राजकुमार केसवानी

और अधिकराजकुमार केसवानी

    समझाती थी माँ

    बचपन में

    'मत रहा करो

    लत्तू के साथ ज़्यादा

    वो पागल है।'

    मोहल्ले के बच्चे भी

    कहते थे उसे

    'लत्तू पागल'

    उसे छेड़ना

    था उनके लिए

    एक खेल

    लत्तू के लिए

    खेल था

    यह दुख-भरा

    रोते-रोते गाली बकते

    भाग जाना वहाँ से

    बंद पड़ी

    मीलों में फैली

    पाएगाह के

    किसी कोने में

    दरवाज़े के टूटे कोने वाले

    रास्ते से

    और फिर

    रोते-रोते

    अकेले

    तोड़ते जाना

    घास के तिनके

    जो उग आते थे

    बंद पड़ी पाएगाह के

    मीलों-मील इलाक़े में

    आए दिन होता था ऐसा

    लत्तू के आँसू

    और पाएगाह की घास में

    किसी दिन भी

    पड़ी नहीं कमी

    क्योंकि

    लत्तू और पाएगाह के

    माई-बाप

    उस समय होते थे

    वहाँ से दूर

    लत्तू के बाप

    कहीं पर चलाते ताँगा

    चार आने में

    और पाएगाह के मालिक

    स्विटजरलैंड के

    किसी गोल्फ़ कोर्स में

    हरियाली ज़मीन पर

    बढ़ते आगे

    स्टिक, बॉल और मुसाहिबों के साथ

    फ़तह करते

    होल पर होल

    ऐसे में मैं

    पहुँच जाता था वहाँ

    जहाँ रोता था लत्तू

    और जहाँ होती थी घास

    चारों तरफ़ लहलहाती

    मैं पैदाइश से

    जानता था

    लत्तू को

    मुझे मालूम था

    कि वो

    लत्तू पागल नहीं

    लतीफ़ अहमद है

    लत्तू भी

    जानता था ख़ूब

    मैं दोस्त हूँ

    लत्तू का क़ुसूर था इतना-सा

    कि उसकी मर गई थी माँ

    एक पागल कुत्ते के काटने से

    उसके चाचा

    फिरते थे फटेहाल

    लिए संटी एक हाथ में

    जबकि उनका दूसरा हाथ

    होता था उनकी

    आँखों पर

    चश्मे की तरह

    उजाले से बचता

    शायद ढूँढ़ता

    उस ख़बीस को

    जो ले उड़ा

    उसकी प्यारी बीवी

    उसका प्यारा बच्चा

    छोड़कर उसको पीछे

    खाने पत्थर

    बच्चों के

    इन सबके बीच

    बेचारा लत्तू

    बेवजह लतियाया लत्तू

    रोता तब तक

    जब तक

    दोस्त लौटा नहीं

    स्कूल से

    जिसके साथ

    दूसरी गली में

    वो भाग सकता था

    हँसता-खेलता

    बकरियों के पीछे

    खेल सकता था

    कंचे

    जिसमें दोनों दोस्त

    लगातार चूकते निशानों के बाद

    ठहाके लगाकर

    कह लेते 'अरे-या-र-र-र-'

    और शाम ढले

    आता था घर

    माँ से यह सुनने

    कि आज फिर

    खेले तुम

    लत्तू के साथ?

    अब इस उमर में

    नहीं खेलता मैं

    लत्तू के साथ

    ही डाँटती है

    मुझे माँ

    इस बात पर

    क्योंकि अब

    दोनों नहीं हैं

    मेरी ज़िंदगी में

    लेकिन फिर भी

    देखता हूँ

    यह कहानी

    ख़त्म यहाँ पर होती नहीं

    आजकल

    सुनता हूँ अपने बारे में

    यार लोग

    कहते हैं आपस में

    उससे ज़रा दूर रहा करो

    वो पागल है

    स्रोत :
    • पुस्तक : बाक़ी बचें जो (पृष्ठ 22)
    • रचनाकार : राजकुमार केसवानी
    • प्रकाशन : शिल्पायन प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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