तुम नंगा सच लिखती हो

tum nanga sach likhti ho

शिवांगी गोयल

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तुम नंगा सच लिखती हो

शिवांगी गोयल

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    “तुम नंगा सच लिखती हो”

    सच होता ही है नंगा, बिल्कुल किसी नवजात की तरह

    नंगा होता है सच!

    वो तो कुछ आँखें ग़लीज़ होती हैं

    जो उस मासूमियत में भी हवस खोज लेती हैं

    वरना नग्नता से बड़ा सच क्या है?

    कपड़े तो सामाजिक हैं, समाज पहनाता है

    उतार भी देता है समय-असमय

    कपड़े—सभ्य समाज की पहचान,

    नग्नता को, सच को ढकने का उपाय

    जाने कब अस्तित्व मिला होगा कपड़ों को

    कि वो शर्म और सभ्यता का पर्याय बनें

    जाने कौन सा आदम होगा जिसे ठंड से बचने के लिए

    ओढ़े गए कपड़े को उतारने में शर्म आई होगी

    जाने कब इस सभ्यता ने जन्म लिया होगा

    जो अपने अस्तित्व की हक़ीक़त से शरमाई होगी

    देखो, लोगों! स्वीकार करो!

    ये कपड़े महज़ एक झूठ हैं, सभ्यता एक स्वाँग

    समाज ताक में है कि कब तुम्हारे कपड़े उतार दे और शर्मिंदा करे तुम्हें

    उससे पहले उतार फेंको ये सभ्यता का ढोंग

    नग्नता का पर्याय देखो, सच देखो, नवजात को देखो

    क्योंकि सच नंगा ही होता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिवांगी गोयल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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